सबसे पहले किसने और क्‍यों कि छठ पूजा, जानने के लिए पढ़ें पूरी खबर


छठ महा पर्व पर भगवान सूर्य को अघ्‍य देती व्रती (फाईल फोटो)

 राम राज्‍य से पहले भगवान श्री राम व माता सीता, भगवान श्री कृष्‍ण के पौत्र शाम्‍ब, सूर्य पुत्र कर्ण और पांडव पत्‍नी द्रोपदी ने रखा था सूर्य षष्‍ठी का व्रत, की थी सूर्य की अराधना
डेस्‍क :  भगवान आदित्‍य की उपासना का एक खास पर्व है सूर्य षष्‍ठी । सूर्य षष्‍ठी व्रत वर्ष में दो बार आता है। एक चैत्‍य शुक्‍ल पक्ष और दूसरा कार्तिक मास के शुक्‍लपक्ष में। इसी कार्तिक मास के षष्‍ठी तिथि को मनाए जाने वाले पर्व  डाला छठ या छठी मईया का व्रत के नाम से प्रचलित है। धर्म शास्‍त्रों के अनुसार सूर्य षष्‍ठी भगवान सूर्य और उनकी बहन षष्‍ठी की उपासना का पर्व है। 
   आम तौर पर उदय होते सूर्य को ही जल देने या पूजा करने का चलन है। लेकिन चार दिनों तक चलने वाला यह सूर्य षष्‍ठी व्रत  भैयादूज के तीसरे दिन से आरम्भ होता है। पहले दिन सेन्धा नमक, घी से बना हुआ अरवा चावल और कद्दू की सब्जी का भोजन ग्रहण करते हैं। अगले दिन से उपवास आरम्भ होता है। व्रति दिनभर अन्न-जल त्याग कर शाम को खीर बनाकर, पूजा करने के उपरान्त प्रसाद ग्रहण करते हैं, जिसे खरना कहते हैं। इसके अगले दिन  डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य यानी दूध अर्पण करते हैं। इसके अंतिम और दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य दे कर व्रत का पारणा करते हैं। यानी कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को और समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस तरह व्रतधारी बिना अन्‍न-जल के लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं।
विदेशों में भी मनया जाता है छठ पर्व
मान्‍यता है कि यह व्रत विहार, झारखंड, उड़ीसा और बंगाल के कुछ भागों, नेपाल के तराई क्षेत्र और पूर्व उत्‍तर प्रदेश में मनाया जाता है। लेकिन अब सूर्य षष्‍ठी व्रत को रखने वालों का दायरा बढ़ा है। और सूर्य उपासना का यह पर्व न केवल देशभर में बल्कि यूं कहें कि अब यह बिहार से निकल दुनिया के कई देशों में भी मनाया जाने लगाया है। 




ऐसे करें पूजा
तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन देसी घी में प्रसाद तैयार करते हैं। इसके बाद फल, हल्‍दी, अदरक, नारियल, आंवला आदि को प्रसाद के रूप में कच्‍चे बांस की बड़ी डाली या पीतल के परात में रख कर गंगा, नदी, नहर या फिर तालाब के किनारे लेकर जाते हैं। इसमें एक कच्‍चे बांस की सुपेली (छोटा सूप) भी होता है, को लेकर व्रति पूरे परिवार के साथ अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रति एक नियत तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं। और सूर्यास्‍त के बाद घर लौटते हैं। चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। व्रति उसी स्‍थान पर और उसी तरह के सामानों के साथ पुनः इकट्ठा होते हैं  और उगते हुए सूर्य को अर्घ्‍य दे कर वापस लौटते हैं। इसके बाद गाँव के पीपल के पेड़ जिसको जल चढ़ाते हैं। और व्रत का पारणा करते हैं।  पूरे व्रत के दौरान व्रती जमीन पर सोते हैं और सात्विक रहते हैं। महिलाएं नया वस्‍त्र यानी साड़ी और पुरुष पीली धोती पहनते हैं। यह वत्र स्‍त्री और पुरुष दोनों रखते हैं। 

सूर्य के साथ उनकी पत्‍नियों की भी होती है पूजा
 छठ में सूर्य के साथ-साथ उनकी दोनों पत्‍नियों ऊषा और प्रत्‍यूषा की संयुक्त आराधना होती है। सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को और प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण (ऊषा) और अर्घ्य देकर दोनों का नमन किया जाता है। इस पर्व में किसी मूर्ति की नहीं बल्कि प्रत्‍यक्ष तौर पर प्रकृति की पूजा की जाती है।

कब और कैसे शुरू हुआ व्रत

  • भारत में सूर्योपासना ऋग वैदिक काल से होती आ रही है। सूर्य और इसकी उपासना की चर्चा विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण आदि में  की गयी है। यही नहीं सूर्य की वन्दना का उल्लेख पहली बार ऋगवेद में मिलता है। 
  • शंकराचार्य मंदिर के प्रमुख आत्‍मप्रकाश शास्‍त्री कहते हैं कि एक बार  भगवान कृष्ण के पौत्र शाम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था। इस रोग से मुक्ति के लिए विशेष सूर्योपासना की गयी, जिसके लिए शाक्य द्वीप से ब्राह्मणों को बुलाया गया था।
  • इसी तरह मान्यता है कि लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान श्री राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की थी। 
  •  महाभारत की एक कथा के अनुसार सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्यदेव की पूजा शुरू की। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे। वह प्रतिदिन घण्टों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्यदेव को अर्घ्य देते थे। आज भी छठ में व्रति अर्घ्य दान के समय यही पद्धति अपनाते हैं और घंटों जल में खड़े रह कर भगवान आदित्‍य की अराधना करते हैं। 
  •   कुछ कथाओं में पांडवों की पत्नी द्रौपदी द्वारा भी सूर्य की पूजा करने का उल्लेख आता है।