पांडुलिपियों से उठ कर रंगमंच पर आए तुलसी के राम

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दुर्गेश मिश्र-
 जगह-जगह रामली लाओं का मंचन और जनसंचार के तमाम   प्लेटफार्मों पर रामालीलाओं की खबरें, फोटो और वीडियोज देख   कर मन आज स्मृतियों के खंडहर पर जा बैठा है । स्मृतियों के यह  वह खंडहर हैं जिन्हें हम 75 से 99 के दशक तक संभाल कर रखे थे।

इस्मृतियों के इन झरोखों से जब झांकता हूं तो गांव गलियों में दौड़ता अपना बचपन याद आता है।  और इन्हीं बचपन में याद आती है गांव की रामलीला। राम और रावण के पोशाक, मुकुट और वानर, भालु और राक्षसों के मुखैटे, जिन्हें देख कर कभी डरते  तो कभी मुस्कुराते थे। लेकिन रोजी रोटी की तलाश में जिदंगी इतनी व्यस्त हुई कि मन राम में तो रमा, पर रामलीला देखने को मचलता है। 

मैने बचपन से गांव की रामलीला देखी हैं। कभी-कभी दरभंगा से नाटक मंडलियां आती थी जो रामलीला का मंचन करती थीं।  लोग खुशी-खुशी चवन्नी-अठन्नी का टिकट लेकर मध्य रात्रि तक रामलीला देखते थे। 

रामलीला की शक्ति अपरंपार है।  कुछ भी हो, कैसा भी हो, कहीं भी हों पर रामलीला और रामलीला की यादें मेरा संग नहीं छोड़तीं।  आखिर छोड़ें भी तो कैसे।  मैं खुद भी काशी क्षेत्र का हूं और सरयूपारी हूं। सो रामलीला का सीधा संबंध बनारस और अयोध्या से जुड़ा है। क्योंकि रामलीला के बीज अयोध्या और काशी दोनों में ही अंकुरित हुए हैं। और मेरा संबंध भी जितना बनारस से है उतना ही अयोध्या से भी। 

त्रेता में अयोध्या रामलीला के जीवित स्थान थे तो बनारस में 16 वीं शताब्दी में बाबा तुलसीदास ने आम जन मानस की भाषा में रामचरित मानस लिखकर जन-जन तक पहुंचाया। हलांकि इससे पहले त्रेतायुग में ही महर्षि वाल्मीकि जी ने रामायण की रचना कर राम के पराक्रम और उनकी लीलाओं से लोगों को रू-ब-रू करवा चुके थे। 

 रामायण दुनिया की इकलौती ऐसी कहानी है, जो अलग-अलग तरह से पढ़ी, सुनी और कही जाती है।  दुनियाभर में 50 से अधिक भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है ।। रामकथा  पढ़ कर इसे समझने वाले कितने लोग होंगे, यह चर्चा का विषय हो सकता है। पर राम को घर-घर तक पहुंचाने वाली रामलीला है। तुलसी की पांडुलियों (रामचरित मानस) से उठ कर जब राम रंगमंच पर आए वह तुलसी के न हो कर सबके राम हो गए। 

बनारस से मानी जाती है रामलीला की शुरुआत

  दरअसल रामलीला की शुरुआत 16वीं शताब्दी में बनारस से मानी जाती है। यह वह समय था जब गोस्वामी तुलसीदास जी ने 1577 में भगवान श्री राम के चरित्र को  सामान्य जनमानस की भाषा अवधी में रामचरित मानस में उतारा था।  यह देव भाष संस्कृत के विपरित अवधी में देवता का बखान था।  सो इसका विरोध होना स्वभाविक था, विरोध भी खूब हुआ। लेकिन इन सबके बीच राम की लीलाओं को नाटक के जरिए जनजन तक पहुंचाने का काम इसी बनारस (काशी) बाबा तुलसीदास ने किया।  

 रंगमंच से लोकप्रीय हुई राम की लीला

उस जमाने में रामचरित मानस के प्रचार प्रसार के इतने साधन नहीं थे। आज की तरह न तो कहीं कोई छापाखाना था और नहीं टीवी या अन्य कोई साधन। रामनाम के प्रचार प्रसार के बाबा तुलसी तुलसी खुद ही लोगों के बीच जाकर गा-गा कर राम कथा सुनाने लगे।  यह दौर था मुगलों का। तलवार के दम पर कहीं यज्ञोपवित उतरवाया जता तो कहीं धर्म परिवर्तन। ऐसे में लोगों को संगठित करने में  रामकथा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।  राम कथा जब तुलसी के रामचरित मानस और व्यास पीठ से उठ कर रंगमंच पर आई तो यह घर-घर में जन प्रीय हो गई। उस समय रामलीला का मंचन रामचरित मानस की चौपाइयों पर ही किया जता था, लेकिन आगे चल कर इसके संवाद लिखे जाने लगे ।

 33000 हजार साल पहले लिखा गया था रामायण

देश में शायद ही कोई ऐसा होगा जिसे रामचरित मानस की एक-आध चौपाई या दोहे याद न हों। वैसे से तो भगवान राम का चारित्र और उनकी लीलाओं को देश-दुनिया में अनेकों भाषाओं लिखा, पढ़ा और मचित किया जाता है, लेकिन भगवान राम पर दो ही मूल ग्रंथ लिखे गए हैं। 

माना जाता है कि आज से करीब 33,000 हजार साल पहले आदि कवि महर्षि वाल्मीकि जी ने देवभाषा संस्कृत में रामायण लिखी जिसे पहला ग्रंथ माना जाता है। सात खंडों में लिखे इस रामायण में कुल 24 हजार श्लोक हैं। दूसरा है गोस्वामी तुलसीदास द्वारा अवधी में लिखा रामचरित मानस, जिसमें   9,388 चौपाइयां, 1,172 दोहे और 108 छंद हैं। इससे इतर 300 से अधिक ऐसी राम कथाएं है जो चीन, जापना, जावा-सुमात्रा, इंडोनेसिया, थाइलैंड, मॉरिशश, श्रीलंका, सहित अनेक देशों गाई और पढ़ी जाती हैं। इसके अलवा असंख्य लोक कथाएं भी जिससे लोग अपनी-अपनी भाषाओं कहते हैं सुनते हैं। 

तीन विधाओं में होती है रामलीला

 रामलीला में गीत, नृत्य और संगीत की प्रधानता नहीं होती। क्योंकि इसके पात्र राम वीर, धीर, गंभीर और मर्यादा पुरुषोत्तम हैं।  रामलीला का मंचन हिंदी की तीन विधाओं में गद्य, पद और चम्पू ( जो गद्य और पद दोनों में हो) में किया जाता है।  इन तीनों विधाओं में उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक रामलीला का मंचन किया जाता है। मिथिलांचल में तो रामलीला मंचन मंडलियां भी जिस तरह मथुरा में रासलीला की।  इनमें दरभंगा की रामलीला मंडलिया काफी प्रसिद्ध जो साल के बारहो माह अलग-अलग प्रदेशों में जाकर रामलीला के मंचन से रामनाम की अलख जगाती हैं।