नवीन कुमार
इन दिनों राजनीतिक सरगर्मियां तेज होती जा रही हैं। भूगोल की ठेठ भाषा में इसे पछुआ हवा चल रही है कहा जाए, तो बेहतर हो
गा। यह गर्माहट तो देती ही है। साथ ही आपकी चमड़ी को बिना फोड़ा उगाए उधेड़ रही होती है। सूर्य के ताप के चलते आप घर भी तो बैठ नहीं सकते और पछुआ हवा के डर से खिड़की भी नहीं खोल सकते। इसके लिए जरूरी है आप एक बड़े टब में पानी लेकर खिड़की के पास रख दें फिर एक चीनी की बोरी या सूती कपड़े को भिगोकर टांग भी दें। कम से कम शीतलता आती रहेगी। इसी प्रकार आप की आज की राजनीति है। व्हाट्सएप या फेसबुक यूनिवर्सिटी से आने वाली गर्माहट से बचने के लिए भी आपको कुछ न कुछ जुगाड़ करना होगा। मेरा विचार है कि आप इसके लिए किताबों का सहारा लें। सोशल साइट्स से आने वाली सूचनाओं को आप किताब से ही छानकर अपने आपको अंदर तक शीतल कर पाएंगे। हाल ही में यूपी में फिर से एक बार गांधी परिवार की जाति को लेकर कुछ लोगों ने हमला बोला है। इसके बाद कुछ लोग इसे मुस्लिम से जोड़ने लगे हैं तो कुछ ने ईसाई से जोड़ दिया है। फिर सोशल साइट्स पर एक बाढ़ सी आने लगी। जैसे बिहार की कोशी नदी अपनी उफान पर हो। न जाने कितने लोगों को इस बार भी पलायन करना पड़े। इसके लिए तो डॉ. दिनेश कुमार मिश्र की किताब दो पाटन के बीच में ही पढना पड़ेगा। बहरहाल हकीकत तो यह है कि फिरोज गांधी पारसी थे। लेकिन ये पारसी थे कौन ! इसे जानने के लिए महान कवि और दार्शनिक रामधारी सिंह दिनकर की एक सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ संस्कृति के चार अध्याय को पढ़ना चाहिए। पुस्तक 26 जनवरी 1956 को प्रकाशित की गई थी। इस ग्रंथ के दूसरे अध्याय आर्य द्रविड़ समस्याओं पर उन्होंने पेज नंबर 43 पर एक अध्याय लिखा है। इसमें उन्होंने लिखा है कि मुंबई और गुजरात में कुछ पारसी लोग बसे हुए हैं। ये भारत में 10 वीं सदी के आरंभ में आए थे। पारसी धर्म और आर्य धर्म किसी समय एक ही मूल धर्म से निकले थे। इसके पीछे उन्होंने तर्क दिया है कि इनकी सबसे प्राचीनतम ग्रंथ जेंद अवेस्ता है, जिसकी भाषा ऋग्वेद से मिलती है। इस जाति में भी भारतीय आर्यों के समान चार जातियों या वर्णों का विधान है। इसमें भी संस्कार पुराने समय से चला आ रहा है। आर्य के समान दिव्य तत्वों सूर्य, अग्नि,चंद्रमा, वायु और जल आदि की पूजा ये लोग करते थे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी के प्राध्यापक डॉ.बीएन सिंह ने अपनी पुस्तक विश्व धर्म एवं दर्शन की समस्याएं में लिखा है कि इरान में बसे पारसी मूल रूप से आर्य संस्कृति के समान ही विधान करते थे। दोनों में काफी समानताएं हैं। महात्मा जरथुस्त इस धर्म के संस्थापक हैं। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि जेंद अवेस्ता के अनुसार इनका जन् अडियानम वेदज्ञ नामक स्थान पर हुआ था। इस स्थान को आर्यों का बीज माना जाता है। यही स्थान आगे चलकर इरान हो गया। इसकी भाषा संस्कृत के अत्यंत निकट थी। आर्य संस्कृति के अनुसार ही जरथुस्त से पहले ये लोग अनेक देवी-देवताओँ को मानते थे। पं. जवाहर लाल नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखा है कि हिंदुस्तान और इरान की सभ्यता किसी समय एक रही होगी। क्योंकि वैदिक संस्कृत और अवेस्ता की भाषा मिलती जुलती है। बाद में संस्कृत और फारसी के विकास अलग-अलग हुए, लेकिन दोनों के मूल समान हैं। दोनों भाषाओँ पर और उससे ज्यादा उसकी कला और संस्कृति पर उनके जुदा-जुदा वातावरणों का प्रभाव पड़ा। हिंदुस्तान की तरह इरान की भी सांस्कृतिक बुनियाद इतनी मजबूत थी कि वह अपने हमलावरों पर भी असर डाल सके। कुछ आकृतियों और मुद्राओं में अश्चर्यजनक समानताएं हैं। इस बात के भी कुछ सबूत हैं कि इरान और हिंदुस्तान में पूर्व में संबंध थे। पारसी लोग पाश्व कहलाते थे।