पहचान को तरसता लखनेश्वर डीह

दुर्गेश मिश्र

गौरवमयी थाती को समेटे लखनेश्वरडीह आज अपनी पहचान को तरस रहा है। उत्तर प्रदेश के बलिया जिले की रसड़ा तहसील के विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत आता यह ऐतिहासिक स्थल अपने गर्भ कई राजवंशों के उत्थान व पतन का गवाह रहा है। छोटी सरयू यानी टौंस नदी के किनारे इस्थित यह टीला दो जिलों ही नहीं बल्कि दो दो विधान सभा क्षेत्र के लोगों व जन प्रतिनिधियों की सांझी धरोहर है। सांझी इसलिए कि रसड़ा विधानसभा क्षेत्र की सरहद जहां खत्म होती वहीं से गाजीपुर जनपद के जहूराबाद विधानसभा क्षेत्र की सीमा शुरू होती है। यही नहीं जहां जहूराबाद विधानसभा क्षेत्र के विधायक ओमप्रकाश राजभर मौजूदा सरकार में मंत्री हैं तो रसड़ा क्षेत्र के विधायक उमाशंकर सिंह सरकार में न रहते हुए भी काफी सक्रिय हैं। इसलिए दोनों जनप्रतिनिधियों का दायित्व बनता हैं कि वह इस ऐतिहासिक व धार्मिक स्थल को उजागर कर इसे पर्यटन के नक्शे पर लाएं। पर विडंबना यह है कि इन दोनोंही नेताओं ने इस ऐतिहासिक विरासती स्थल के विकास के बारे में शायद सोचा ही नहीं या सोचना ही नहीं चाहते। इस स्थल से लगाव रखने वाले लोगों का तो यहां तक कहना है कि यहां कोई वोट बैंक नहीं हैयदि वोट बैंक होता तो वे लोग ;मंत्री ओमप्रकाश राजभर व विधायक उमाशंकर सिंहद्ध जरूर इसका विकास करवाते। लखनेश्वर डीह पर बने विष्णु मंदिर के मुख्य पुजारी दीनदयाल दास को इस बात का रंज है कि अति प्राचीन ऐतिहासिक एवं धार्मिक स्थल होने बावजूद इसकी अपनी कोई पहचान नहीं है। वे कहते हैं यह केवल धार्मिक स्थल ही नहीं है, बल्कि इसका ऐतिहासिक महत्व का भी है। आज भी इस डीह की खुदाई के दौरान छोटे-बड़े शिवलिंग व विष्णु की मुर्तिया मिलती रहती हैं जो इसके ऐतिहासिक व धार्मिक पहलुओं को मजबूत करती हैं। यही नहीं इस स्थान का उल्लेख रामायण सहित अन्य धर्मग्रंथों में भी मिलता है। दीनदयाल दास कहते हैं हमें इस बात का रंज है कि विधान सभा चुनाव से पहले रसड़ा जोकि हमारा विधानसभा क्षेत्र पड़ता है वहां के विधायक उमाशंकर सिंह व गाजीपुर जिले के जहूराबाद विधानसभा क्षेत्र के विधायक व भाजपा सरकार में अब मंत्री ओमप्रकाश राजभर इन दोनो ही नेताओं ने कहा था कि इस स्थल को विकसित किया जाएगा, लेकिन चुनाव बीते लगभग छह-सात माह होने वाले हैंपर इसपर कोई अमल होता दिख नहींरहा है। वे कहते हैं यह कोई नई बात नहीं हैकि मुझे ताजुब होता, लेकिन दुख इस बात का है कि इस स्थान का विकास करवाना नहीं है तो लोगों को झूठा दिलासा क्यों दिया जाता है। वहींइसी टिले पर बने शिवमंदिर के पुजारी राजेंद्र पांडे कहते हैं कि इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती हैकिया यहां एक सोलर लाइट तक नहीं है। डिह पर दूर-दूर तक झाड़झंखाड़ हैफिर में रात में प्रकाश की व्यवस्था नहीं की गई है। वे कहते हैं कि इस स्थल को किले के नाम से भी जाना जाता है। वर्तमान समय में यह धार्मिक स्थान आमघाट ग्राम सभा के अधीन आता है। लोहिया ग्राम विकास योजना के तहत सरकारी फंड आया था, लेकिन उस फंड का क्या हुआ पता ही नहीं चला। न तो आम घाट गांव सभा का विकास हुआ और ना ही लखनेश्वर डिह के बारे में ही कुछ सोचा गया। वे कहते हैं कि आमघाट गांव का इतिहास भी लखनेश्वरडिह से ही जुड़हैफिर इसके विकास के तरफ न तो पूर्व ग्रांम प्रधान जयराम मल्लाह ने ध्यान दिया और ना ही मौजूदा ग्राम प्रधान मनुगोड़ने।विकास न कराने का आरोप लगाने वाले दोनो मंदिरों के पुजारियों दीन दयाल दास व राजेंद्र पांडे से जब पूछा गया कि विधायक उमाशंकर सिंह तो अपने क्षेत्र का विकास करवाने में अग्रणी हैं तोवे कहते हैं कहां साहब! दूर के ढोल सुहावने होते हैं। विकास तो आपको दिख ही रहा है। लखनेश्वरडिह भी तो उन्हीं के हलके में है। यह स्थल लाखों लोगों की आस्था से जुड़ा है। यहां साल में दो बड़े मेले लगते हैं। मंदिर के नाम पर बहुत साल पहले मुडेरा गांव की एक महिला ने 16 बिघा जमीन दान की थी। कहा तो यहां तक जाता है कि यह किला चार सौ बिघे में फैला हुआ था, लेकिन अतिक्रमण व सरकारी उपेक्षा के कारण इसे वह पहचान नहीं मिल पा रही जिसका वह हकदार है।

लखनेश्‍वरडीह का धार्मिक पक्ष

 कहा जाता है कि श्री राम व लक्ष्मण में मारीचि और सुबाहु का वध करने के लिए जब सिद़ध आश्रम बक्‍सर की यात्रा की थी तो पहले दिन उन्‍होंने छोटी सरयू के किनारे बसे लखनेश्‍वर डीह नामक स्‍थान पर पहले दिन उन्‍होंने रात्रि विश्राम किया था। मान्‍यता यह भी है कि यहीं पर उन्‍होंने विश्‍वामित्र की मौजूदगी में शिवलिंग की स्‍थान पर पूजा की थी, जिस कारण इस शिवलिंग नाम लक्ष्‍मणेश्‍वर कालांतर में लखनेश्‍वर महादेव के नाम से विख्‍यात हुआ। यहां से थोडी दूर पर आमघाट नामक गांव भी है, जिसके बारे में कहा जाता है कि पहले इस गांव का नाम राम घाट था तो समय अंतराल में अपभ्रंस हो कर आमघाट होगया। मौजूदा समय में इसी आमघाट ग्रामपंचायत के अधीन लखनेश्‍वर डीह का यह टिला आता है। यही कारण है कि इस टिले पर जगह'जगह दर्जनों शिवलिंग स्‍थापित है जों यहां खेतों में हल चलाते समय या खुदाई करते समय अकसर मिल जाते हैं। इससे इस इस मान्‍यता को बल मिलता है। एक अन्‍य मान्‍यता के अनुसार

बलिया जिले का इतिहास भी जानना जरूरी

 यदि लखनेश्‍वरडीह की प्रचीनता को जानना है तो इसके लिए बलिया जिले का इतिहास भी जानना जरूरी है। क्‍योंकि बलिया जिले के कोने'कोने में इस तहर के ऐतिहासिक स्‍थल भरे पडे हैं, जिनको पर्यटन के नक्‍शे पर लाना समय की जरूरत है। बलिया की ऐतिहासिक महत्‍ता को उजागर करती डॉ: ब्रह़मानंद सिंह की पुस्‍तक बलिया का प्रारंभिक इतिहास का अध्‍ययन करें तो पाते हैं कि छठीं शताब्‍दी ईसा पूर्व में जब 16 महा जनपदों का उदय हुआ तो मगध, कोसल, काशी और वज्जि उन सभी जनपदों में बलिया बंटा हुआ था। मुख्‍य भाग कोस ओर काशी राज्‍यों के अधीन था। मौजूदा दोआबा परगना तत्‍कालीन अंग राज्‍य में, खरीद और बांसडी वज्जि में, जबकि पूर्वी सिकंदरपुर मल्‍ल राज्‍य में और पश्चिमी सिंकदरपुर, को कोपाचिट और लखनेश्‍वर पर कोसल गणराज्‍य के अधीन था। इस तरह मौजूदा बलिया जिले का पश्चिमी और पश्चिमोत्‍तर भाग कोसल और अयोध्‍या में , दक्षिण'पश्चिमी भाग काशी में और उत्‍तर पूर्वी विदेश में तथा दखिन और पूरब का भाग अंग राज्‍य के अधीन था। समय के अंतराल में बलिया का भाग्‍य बनता और बिगडता रहा, लेकिन उसके राजनैतिक भविष्‍य पर इसका कोई असर नहीं पडा और यह हर समय काल में फलताफूलता रहा। लखनेश्‍वरडीस से प्राप्‍त विष्‍णु की अद़़भुत मूर्ति, सिकंदरपुर और कुतुबगंजत के किले के अवशेष सहित अन्‍य स्‍थलों से मिले पुरावशेषों से एक बात तो स्‍पष्‍ट है कि यहां का इतिहास हमेशा गौरवशाली रहा है। डॉक्‍टर ब्रह़मानंद सिंह के अनुसार चीनी यात्री ह़वेनसांग ने भी अपने यात्रा विवरण में बलिया क्षेत्र के अनेक मंदिरों, स्‍तूपों और बौध विहारों की चर्चा की है। डा: सिंह कहते हैं कि आधुनिक भारत में 1818 में बलिया गाजीपुर जिले का एक हिस्‍सा था। 1837 में अंग्रेजों ने तीन परगों को मिला कर गाजीपुर जिले के तहत बलिया को तहसील बना दिया। 1879 में दो परगनों को मिला कर (जो उन दिनो आजमगढ के नगरा तहसील के अंग थे) एक नई तहसील रसडा गठन किया गया। और वर्तमान समय में इसी तहसील के अंतर्गत लखनेश्‍वरडीह का यह प्रचीन किला स्थित है। समय के इसी उतार चढाव में नवंबर 1879 में अंग्रेजों ने रसडा और बलिया तहसील को मिला कर एक नया जिला बलिया का गठन किया। 1 अप्रैल 1883 को गाजीपुर जिले के जहूराबद परगना को ढाका टप्‍पा को परगना सिकंदरपुर पश्चिम में मिला दिया गया। इसके बाद नवंबर 1884 को छोटी सरयू के दाहिने तट पर स्थित 13 गांव जो लखनेश्‍वर परगना के हिस्‍सा थे वे गाजीपुर जिले को दे दिए गए। यानी रामायण काल से लेकर मौजूदा समय में भी लखनेश्‍वर डीह का राजनैतिक व धार्मिक वजूद किसी न किसी रूप में कायम है।

लखनेश्‍वरडीह का ऐतिहासिक महत्‍व

गाजीपुर व बलिया जिले की सीमा पर तिराहीपुर घाट के पास स्थित यह ऐतिहासिक टीला लगभग 15 एकड क्षेत्र में फैला है जो लगभग 8 मीटर ऊंचा है। इसी टीले पर भगवना विष्‍णु व भगवान शिव का मंदिर है। इससे थोडी दूरी पर यानी इसी पुरातात्‍वीक स्‍थल के पास प्रसिद़ध सूफी संत मीरशाह व शह जमालपीर की मजार है। कहा जाता है कि सन 1949 में टीले पर स्थित शिव मंदिर के बगल में हल जोतते समय भगवान विष्‍णु की लगभग 150 सेंटीमीटर ऊंची काले रंग की प्रतिमा मिली जो यहां के मंदिर प्रतिष्ठित की गई है। कहा तो यह भी जाता है कि यहां से इसी तरह की एक और विष्‍णु की मूर्ति मिली जिसे भारतीय पुरातत्‍व विभाग ने लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित रखा है। इतिहासकारों के मुताबिक सबसे पहले इस पुरास्‍थल का उल्‍लेख ए फ्यूहरर ने अपनी पुस्‍तर द मान्‍यूमेंटल एंडिक्विटीज एंड इंस्क्रिप्‍संस इन द नार्थ वेस्‍टर्न प्राविंसेज एंड अवध में किया। इसके बाद सन 1956 -57 में श्री एमएम नागर ने यहां पर ख्‍ुादाई करवाई। खुदाई में यहां से काले रंग के मिट़़टी के बर्तन,पत्‍थर व पकी हुई मिट्टी की वस्‍तुए मिलीं। कुछ इतिहासकारों का मनना है कि यह मूर्ति गुप्‍तकालीन है वहीं कुछ इतिहासकार इस मूर्ति को पालकालीन मानते हैं। इतिहासकारों का मानना है कि यह मूर्ति आठवीं या नवीं शताब्‍दी की होगी। इसके अलावा लखनेश्‍वरडीह से ही एक टूटी हुई सफेल बलुआ पत्‍थर की आकृति ीाी मिली है, जो एक पत्‍थर पर उकेरी गई है। इस मूर्ति का कमर से ऊपर का भाग टूटा हुआ है, जबकि नीचले हिस्‍से में एक बैठी हुई आकृति का पैर हो नीचे की ओर लट रहा है। इस मूर्ति का दाहिना पैर बैल की पीठ पर और बांया एक बाघ के पीठ पर है। इन दोनों पशुओं के बगल में दो मूर्तियां और हैं, वहीं सिंह के बगल में नारी की आकृति है, जिसे देख कर ऐसा लगता है कि यह भगवान शिव की गोद में बैठी पार्वती की मूर्ति रही होगी। मूर्ति विशेषज्ञों के अनुसार यह हर-गौरी की ही है। यह मूर्ति भी लखनऊ संग्रहालय में रखी हुई है। डाॅ: ब्रह़मानंद सिंह ने भी अपनी शोध पत्रिका व बलिया का प्रारंभिक इतिहास में इस पुरस्‍थल का उल्‍लेख किया है।

किस राजवंश का है यह किला

 लखनेश्‍वर डीह के किले को लेकर लोग तरह-तरह के कयास लगाते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि यह किला गुप्‍त राजवंशों का रहा होगा। क्‍योंकि गुप्‍त काल में वैष्‍णव व शैव धर्म पुष्पित व पल्‍लवित हुआ। इस काल में विष्‍णु व शिव मंदिर का निर्माण अपनी चरम पर था। क्‍योंकि इस टीले से आज भी विष्‍णु के अलावा कई शिव लिंग मिलते हैं। जिन्‍हें इस टीले पर जग-जग प्रतिष्ठित किया गया है। वहीं कुछ लोग इस किले को राजभरों का का किला मानते हैं। इसके पीछे वह कई तर्क भी देते हैं। यहां तक कि यह किला मौजूदा समय में राजनीति की धूरी भी बना गया है। लेकिन एक वर्ग और भी है जो इस किले को विशुद़ध रूप से गुप्‍त राजवंशों का मिला मानता है। उनका कहना है कि हो सकता है कि इसकिले का सामंत राजभर रहा हो जो गुप्‍त वंश के पतन के बाद लखनेश्‍वर किले का अधिपति बन बैठा हो। वहीं कुछ इस किले को कुषाण कालीन मानते हैं। उनका तर्क इस किले से मिली लाल बलुआ रंग पत्‍थर की बनी मूर्ति पर केंद्रीत है। वे कहते हैं कि कुषाण काल में जो भी मूर्तियां बनती थी वे लाल बलुए पत्‍थर की बनाई जाती थीं। जैसा इस से लाल रंग की कुछ मूर्तियां मिली हैं।

किला था या मंदिर

 लखनेश्‍वर डीह किला था या भव्‍य मंदिर। इस बात को लेकर समान्‍य जनमानस में तरह तरह के कयास लगाए जा रहे है। कुछ लोगों का मनाना है कि यह राजभरों का किला था, वहीं कुछ लोग इस पुरातात्विक स्‍थल को मंदिर की जगह मानते है। हलांकि जब अंग्रेज इतिहासकार ए फ़यूहर ने इस स्‍थल की पहचान की थी उसमय भी उने यह जिक्र नहीं किया कि यह स्‍थान पर कोई भव्‍य किला था मंदिर। यही नहीं जब 1956 -57 में श्री एमएम नागर ने यहां पर ख्‍ुादाई करवाई तो उन्‍हें भी कोई ऐसी वस्‍तु नहीं मिली जो इसे किसी राजा का किला स‍ाबति करती। अलबत्‍ता यह जरू हुआ कि इस स्‍थल से मिट़टी के पुराने वर्तन, पत्‍थर की मूर्तियों के अवशेष, तोरण द्वारा व प्रचूर मात्रा में छाेटे व बडे आकाश के शिवलिंग, विष्‍णु व पार्वति की मूर्तिया कुछ जानवरों की मूर्तियां जरूरी मिली जो इस तरफ इशारा जरूर करती हैं लखनेश्‍वर डीह किला नहीं बल्कि गुप्‍तोत्‍तर कालीन राजाओं द्वारा बनवाया गया भव्‍य मंदिर था। इस बात को पौराणिक कथाओं व किंबदंतियों से भी बल मिलता है, जिसमें राम, लक्ष्‍मण व विश्‍वामित्र के आने और शिवलिंग की स्‍थापना की बात कही जाती है। इसकी पुष्टि प्रो: इंद्रजीत सिंह गोxवानी भी करते हैं।

कौन हैं राजभर और क्‍यों किया जाता है इस किले पर राजभरों का दावा

 डा. ब्रह़मानंद सिंह ने अपनी पुस्‍तक बलिया का प्रारंभिक इतिहा में राजभर जातियों का उल्‍लेख करते हुए लिखते हैं कि गुप्‍त साम्राज्‍य के विघटन के बाद बलिया में जिन शक्तियों का उदय हुआ उनमें भर और चेरु प्रमुख थे। इनको बलिया का मूल निवासी भी बताया जाता है। डा: सिंह अपनी पुस्‍तक में उल्‍लेख करते हैं राहुत सांस्‍क2त्‍यान के अनुसार भर जाति सिंधु सभ्‍यता की जननी थी और आर्यो के आने से पहले वह बलिया क्षेत्र में मौजूद थीं। जबकि बुकानन ने भर जाति को बिहार के पूर्णिया जिे में बसे हुए भांवर जाति के समकक्ष माना है। यही नहीं काशी प्रसाद जायसवाल ने अपनी पुस्‍तक 'अंधेर युगीन भारत' में भारशिववंश का क्षत्रिय माना है। पांचवी सदी में गुप्‍त राजवंश का सूर्य अस्‍त होने के बाद भर जाति के लोगों ने अपनी स्थिति काफी मजबूत कर ली। फलत:वाराणसी व गाजीपुर के गंगा तटीय क्षेत्र में इनके बनाए भवनों के अनेक खंडहर आज भी दिखाई देते हैं। भरों के प्रभुत्‍व से बलिया भी अछूता नहीं रहा और इसमें मुख्‍यत: रसडा और बांसडी का क्षेत्र इनके प्रभाव में रहा वहीं ए हसन व जेरी दास द्वारा संपादित ' पीपुल आफ इंडिया उत्‍तर प्रदेश वॉल्‍यूम xLllपार्ट वन' के अंतिम शासक को जौनपुर के सुल्‍तान इ्ब्राहिम शाह शर्की ने मारा था। एहशन के अनुसार उत्‍तर मध्‍यकाल में राजभरों के छोटे-छोटे कबिले स्‍थापित थे। पूर्वि उत्‍तर प्रदेश में इनके छोटे'छोटे राज्‍य थे जिनको मुगल व राजपूतों ने विस्‍थापित कर इनके राज्‍यों पर कब्‍जा कर लिया। वहीं डा: ब्रह़मानंद सिंह के अनुसार भर जनजातियों पर पश्चिम से आए राजपूतों ने धावा बोल दिया और उन्‍हें अपने अधीन कर छिन्‍न'भिन्‍न कर दिया। डा: सिंह कहते हैं कि अग्रेजों के गजेटियर में भी राजभर जातियों और उनकी जागिरों का उल्‍लेख मिलता है। शायद इतिहास के इन्‍हीं तर्कों के आधार पर राजभर इस किले को राजभरों का किला बताते हों। लेकिन यह किला किसका है और इसके गर्भ में मिलते शिवलिंग व मूर्तियों का रहस्‍य क्‍या है। यह तो लखनेश्‍वर डीह गर्म में समाहित है। इन रहस्‍यों से पर्दा उठाने के लिए पुरातत्‍व विभाग के निर्देशन में विस्‍तृखुदाई की जरूरत है।

किले पर जातिय दावा कर चमकाई राजनीति

 सुहलदेव भारतीय समाज पार्टी (भसपा) ने राजभर राजा सुहलदेव व लखनेश्‍वर किले को राजभरों का किला बता कर उत्‍तर प्रदेश खासकर पूर्वि उत्‍तर प्रदेश अपनी राजनीति चकमाई। लोगों का कहना है कि उत्‍तर प्रदेश सरकार में विकलांग कल्‍याण मंत्री व भसपा के राष्‍टीय अध्‍यक्ष जहूराबाद विधानसभा क्षेत्र से मौजूदा विधायक ओमप्रकाश राजभर ने चुनाव के दौरान बारबार इस बात को दोहराया व लोगों के सामने उठाया कि लखनेश्‍वर डीह से राजभरों का पुराना नता है और यह किला राजभरों का रहा है। सो राज्‍य सरकार बनते ही इस किले को पर्यटन के नक्‍शे पर लाने के लिए इसका सर्वांगिण विकास करवाउंगा। लखनेश्‍वर डीह सीधे तौर पर तीन जिलों गाजीपुर, बलिया और मऊ की तीन विधान सभाक्षेत्रों को प्रभावित करता है। खास तौर से गाजीपुर जिले के जहूराबाद और बलिया जिले के रसडा विधान सभा क्षेत्र की सरहद पर होने के नाते इन दोनों को खासे प्रभावित करता है। किले के आस पास के क्षेत्रों के लोगों का कहना है कि ओमप्रकाश चुनाव में किले का विकास का मुद़दा उठा कर प्रदेश सरकार में मंत्री तो बन एक पर वह यहां का संर्वागिण विकास करवाने का अपना वादा भूल गए। प्रदेश उनकी सरकार बने लगभग छह माह का समय होने वाला इसविषय पर उन्‍होंने एक बार भी न तो सदन के अंदर चर्चा और ना ही सदन के बाहर। उनका मकसद केवल जातीय समीकरण साधना था और कुछ नहीं।

पर्यटन स्‍थल बनता तो मिलता रोजगार

बाराचवर, सिउरीअमट, तीराहीपुर, रामघाट, मुंडेरा सहित सैकडो गांवों के लोगों का कहना है कि करीब 15 एकड क्षेत्र में फैले लखनेश्‍वर डीह किले का सौंदर्यीकरण करवाकर इस स्‍थल को दोनों विधानसभाओं के विधायक पुरातात्विक नक्‍शे पर लाते तो युवाओं को रोजगार मिलता। इसके साथ ही पर्यटन को बढावा भी मिलता। इस स्‍थल के पर्यटन के नक्‍शे पर आने के बाद जहां रोजगार के अवसर व संसाधन बढते वहीं राजस्‍व को भी लाभ मिलता, लेकिन ऐसा दिख नहीं रहा है। वहीं मंदिर के सेवादारों का कहना है यहां बलिया जिले के डीएफओ से लेकर अन्‍य सरकारी महकमे के अधिकारी तो बहुत आए सपने भी बुत दिखाए लेकिन जमीन स्‍तर पर हुछ नहीं हुआ। हां इनता जरूर हुआ कि यह स्‍थल अपनी पुरानी पहचान खो कर अब जाति विशेष का स्‍थान बनता जा रहा है। जो न तो सामाजिक तौर पर ठीक और ना ही धार्मिक तौर पर ही। वे कहते हैं कि जब यह स्‍थल ग्राम पंचायत स्‍तर पर ही उपेक्षित है तो एमपी और एमएलए से क्‍या उम्‍मीद करनी।