इस गांव में सुनाई देती है पाकिस्तान की मस्जिदों में होने वाली अजान, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव


दुर्गेश मिश्र 

आधी जनवरी खत्म हो चुकी है। गुनगुनी धूप खिली है, पर ठंड अंदर सिहरन पैदा कर रही है। सोमवार का दिन है और दोपहर के करीब तीन बज रहे हैं।  इस समय हम पाकिस्तान के ठीक बार्डर पर खड़े हैं। यहां से पाकिस्तान की मस्जिदें और गांव दिखाई रहे हैं। मगरीब की नजाम का समय हो चुका है और कुछ ही देर बाद पाकिस्तान की मस्जिदों से उठने वाली नमाज की आवाज हल्के हल्के कानों को सुनाई देने लगी है, लेकिन यही नमाज की आवाज रात के समय और तड़के स्पष्ट सुनाई देती है।  हालंकि सहद के इस पार गुरुद्वारों में होने वाली अरदास और गुरुवाणी में दब जाती है। 

इस समय हम जिस सरहदी गांव में पहुंचे हैं उस गांव का नाम है पुल मोरां, जो सिख इतिहास में पुल कंजरी के नाम से दर्ज है। यह स्थल अमृतसर जिला मुख्यालय से करीब 30 किमी. दूर है और यहां तक निजी साधनों से पहुंचा जा सकता है।

पुल मोरां वह जगह जहां शेर ए पंजाब महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी प्रेमिका और नर्तकी मोरन के लिए नहर पर पुल बना दिया था।  आपने पाकिजा फिल्म का वह डायलाग तो सुना ही होगा जिसमें अभिनेता राजकुमार मीनाकुमारी से कहते हैं, ' पांव जमीन पर मत रखो गंदे हो जाएंगे' । कुछ ऐसी ही दास्तान पुल मोरां के साथ भी है।

 बाद करें इतिहास कि तो यहां पर महाराजा रणजीत सिंह का बनवाया हुए एक खूबसूरत तालाब, एक मंदिर (जिसमे अब पूजा नहीं होती), एक गुरुद्वारा और एक मस्जिद है। कहा जाता है कि यह स्थान सिख शासन में व्यापार का सबसे बड़ा केंद्र था।    महाराजा रणजीत सिंह के निधन के कुछ सालों में ही सिख सामराज्य का सूरज अस्त हो गया और लाहौर के किले पर इस्टइंडिया कंपनी का ध्वज फहराने लगा।  ब्रिटिश इंडिया के समय में भी पुल मोरन का वैभव कम न हुआ।

     लंबे प्रतिक्षा के बाद देश आजद तो हुआ, लेकिन साथ ही विभाजन की विभिषिका भी मिली। एक झटके में लाहौर सरद के उस पास हो गया।  इसके साथ ही पुल मोरां का वैभवन धीरे-धीरे कम होने लगा। गांव पुल मोरां के लोग कहते हैं कि इस गांव को 1971 की जंग में पाकिस्तान ने बहुत नुकसान पहुंचाया।  यह गांव 15 दिन तक पाकिस्तानी सेना के कब्जे में रहा। इसके बाद से इस गांव का वैभव कम हो गया।

 गांव में मात्र एक प्राईमरी स्कूल


अब इतिहास से निकल कर वर्तमान में आते हैं।    पुल मोरां बमुश्किल से 10-घरों का गांव है। इस गांव का नाम पुल कंजरी यानी मोरां के नाम पर बनवाए गए पुल के वजह से पड़ा। यह गांव धनोए कलां ग्राम पंचायत का हिस्सा है। यह गांव चारों तरफ से लिंक रोड से घिरा है। इस गांव के लोगों ने सन 1965 और 71 की जंग को बेहद करीब से देखा है। धनोए कलां में कुल मतदाताओं की संख्या करीब 1600 या इससे कुछ अधिक है।  तीन सौ या इससे अधिक घरों वाले इस गांव में महज  एक प्राइमरी और एक प्राइवेट स्कूल है। 

गांव धनोए कलां पहुंचने पर सबसे पहले हमें बड़ा सा बरगद का पेड़ और छोटा सा मंदिर दिखाई देता है।  इसके साथ ही एक निजी स्कूल की बिल्डिं और उसके पीछे सरकारी प्राइमरी स्कूल दिखा देता है।  यहां से सीधे हमे पहुचते है गांव के युवा सरपंच अवतार सिंह के घर। यहीं पर हमें करीब 55 वर्ष की आयु के गुरमुख सिंह भी  मिलते हैं।  कुछ औपचारिकता पूरी होने के बाद हम बात आगे बढ़ाते हैं । सन 1965 और 71 की जंग पर लंबी और रोमांचक चर्चा होने के बाद अब आते हैं असल मुदृदे पर यानी गांव की मूलभूत सुविधाओं पर जो पंजाब सरकार की ओर से ग्रामीणों को दी जाती हैं।

सीनियर सेकेंडरी और हुनर विकास केंद्र खोलने की मांग



गांव के सरपंच अवातार सिंह कहते हैं, इस गांव की आर्थिकी कृषि पर निर्भर है, दो एक लोग सेना में है, वही एक दो लोग विदेश में। गांव में मकान पक्के हैं गलियां और नालियां पक्की जैसा कि आजकल हर गांवों में है। लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में हमारा गांव आज भी पीछड़ा हुआ है।

  हमने पूछा वह कैसे, इसपर सरपंच के साथ बैठे गुरमुख सिंह कहते हैं, प्राइमरी स्कूल को छोड़ कर गांव में न तो मिडल स्कूल है और ना ही सीनियर सेकेंडरी स्कूल, कालेज की तो बात ही छोड़ दिजिए। अस्पताल के नाम पर एक डिस्पेंसरी है जो इमरजेंसी में नाकाफी होती है।

बच्चों को पांचवी के बाद जाना पड़ता है 10 किमी दूर अटारी



पांचवीं के बाद बच्चों को आगे की पढ़ाई के लिए यहां से करीब 10 किलोमीटर दूर अटारी या 32 किमी दूर अमृतसर जाना पड़ता है। चलिए लड़कों का तो जैसे तैसे आना जाना होता है, लेकिन कुड़ियों (लड़कियों) को परेशानी होती है। यही हाल स्वास्थ्य सेवाओं का भी है।  इस दौरान गांव के कुछ और लोग भी आ जाते हैं। वे लोग कहते हैं कि प्रदेश सरकार को सीमावर्ती गांवों में स्वास्थ और शिक्षा की तरफ विशेष ध्यान देने की जरूरत है। 

क्योंकि शिक्षा और जानकारी के अभाव में युवा बेरोजगार और कम पढ़े लिए हो जाते हैं।  बेरोजगारी तो बढ़ती ही साथ ही बच्चे गलत रास्ते पर भी चल पड़ते हैं। ऐसे में सीमावर्ती क्षेत्रों उच्च शैक्षणिक संस्थानों के साथ साथ सरकार को हुनर विकास केंद्र भी खोलने चाहिए, ताकि युवाओं को रोजगार के अवसर मिल सकें।