'खुशबू' को तलाशता इत्र का शहर गाजीपुर

  नवाबों के दरबारों और गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर के उपन्‍यास से होते हुए गाजीपुरियों के जेहन में रचाबसा इत्र और गुलाबजल की ‘एकाध शीशी’ ही मौजूदा समय में बची है

कभी इसी जगह गाजीपुर का मशहूर इत्र बनता था। 
दुर्गेश मिश्र, कभी इत्र और गुलाब की खेती के लिए विश्‍व प्रसिद्ध गंगा किनारे बसे गाजीपुर के इत्र उद्योग को आज संजीवनी की तलाश है। नवाबों के दरबारों और गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर के उपन्‍यास से होते हुए गाजीपुरियों के जेहन में रचाबसा इत्र और गुलाबजल की ‘एकाध शीशी’ ही मौजूदा समय में बची है।

 किसी जमाने में स्‍टीमर घाट की गलियों में गुलबा, केवड़ा और मोगरा फूल यूं ही गंधियों के कारखानों से लेकर गलियों की सड़कों पर बिखरे रहते थे। लेकिन, बदलते दौर के साथ-साथ न तो फूलों की पंखुडि़यां दिख रही हैं और ना ही गंधियों के कारखानों से इत्र की खुशबू। यदि कुछ रह गया है तो इत्र की खाली शीशियों उठती सुगंध। कुछ ऐसा ही हाल इन दिनों गाजीपुर के इत्र उद्योग और इससे जुड़े लोगों का है। चाहे वह इत्र बनाने वाले गंधी हों या फूल उगाने वाले काश्‍तकार।
सेंथेटिक सेंट ने बिगाड़ा कारोबार
गाजीपुर के इस्‍टीमर घाट मोहल्‍ले में महाराजा इत्र वाले के नाम से प्रसिद्ध माहेश्‍वरी परिवार की 80 वर्षीय उमा गांधी कहती हैं कि सन 1970 तक इत्र और गुलाब जल बनाने का काम अपने सबाब पर था। लेकिन, धीरे-धीरे यह उद्योग खत्‍म होने लगा और आज स्थिति यह है कि यह काम बंद हो गया है। इसके पीछे वे महंगाई, सेंथेटिक परफ्यूम और इत्र के कारोबार को मानती हैं। उमा कहती हैं कि जब वह 1959 में बहु के रूप में इस घर में आई थीं तो घर के सारे कमरे गुलाब, केवड़ा और मोतियों के फूलों से भरे रहते थे। कभी-कभी तो घर में जगह न होने के कारण इन्‍हीं फूलों पर सोना पड़ता था, लेकिन आज फूल ढूंढे नहीं मिल रहे हैं। अब अचार और मोरब्‍बे का कारोबार करना पड़ा रहा है।
24 घंटे चलते थे कारखाने
माहेश्‍वरी परिवार के ही 92 वर्षीय लालजी केशरी कहते हैं कि गुजरा हुआ समय गाजीपुर के इत्र उद्योग का स्‍वर्णिम समय था। कन्‍नौज का इत्र उद्योग तो काफी बाद में आया। अंग्रेजी सरकार ने भी गाजीपुर के इत्र कारोबार को बढ़ावा दिया था। तब यहां का इत्र इंग्‍लैंड तक जाता था। उस समय तीन शिफ्टों में काम होता था।
तब गाजीपुर इत्र और अफीम के लिए जानाजाता था
 
लाल जी कहते हैं- तब गाजीपुर तीन चीजों के लिए जाना जाता था। पहला, इत्र और गुलाबजल, दूसरा फूलों की खेती और तीसरा अफीम। क्‍योंकि इन तीनों के लिए यहां की भौगोलिक स्थिति माकूल थी। लेकिन, देश की आजादी के बाद सरकारी बेरुखी के चलते थे यह कारोबार अब खत्‍म हो गया है। लालजी कहते हैं कि यह उनका पुश्‍तैनी कारोबार था। अब केवल इत्र की खाली शीशियां रह गई हैं जो पुराने दिनों की याद दिलाती हैं।
फूलों की खेती से किसानों ने मुंह मोड़ा

गाजीपुर की गलियों में मोगरा के फूलों का हार बेचने वाले माली रामदुलार, बेचन और हरिहर नाथ कहते हैं कि साहब अब फूल ही कहां रह गए जो इत्र के काम आए। ये पुश्‍तैनी कारोबार है जिसे न छोड़ते बनता है और ना करते। थोड़ा बहुत फूल उगाते हैं सो हार बनाकर बेचते हैं। इसी तरह गुलाब की खेती करने वाले रामनाथ कहते हैं कि फूल उगाने में काश्‍त बहुत आती है, लेकिन दाम पूरा नहीं मिलता। इसलिए देसी फूलों की खेती छोड़ शंकर किस्‍म के फूल उगाते हैं। इत्र के लिए तो देसी गुलाब चाहिए होता है, जिसमें लागत बहुत आती है।
सरकारों ने उजाड़ा कारोबार
गाजीपुर में आज भी कहीं पुछिए तो लोग सीधे स्‍टीमर घाट के महाराजा इत्रवाले का नाम लेते हैं। किन्‍तु अब यह नाम इतिहास बन चुका है। थोड़ा बहुत कारोबार होता है। वह भी इस लिए कि पुश्‍तैनी धंधे को जिवंत रखा जाए। इसी परिवार के रामजी केसरी कहते हैं कि इस कारोबार का गला घोटने में समय-समय की सरकारें भी जिम्‍मेदार हैं। यहां तक कि गाजीपुर के चुने हुए जन प्रतिनिधियों ने  भी इस उद्योग को प्रोत्‍साहित करने में कोई रुचि नहीं दिखाई। परिणाम आप के सामने है।
70-80 के दशक में तीन शिफ्टों में होता था काम
गुजरे जमाने की याद दिलाती बुझ चुकी इत्र बनाने की भटि.ठया।
रामजी केशरी कहते हैं कि 70-80 का दौर इत्र उदद्योग के लिए स्‍वर्णिम युग था। उस समय तीन शिफ्टों में काम होते थे। उस समय  रोजाना 60 से 60 मन गुलाब और चमेली के फूल निकलते थे। दो से तीन मनन केवड़ा की बालियां भी निकलती थी जिससे इत्र और तेल तैयार किया जाता था। दिल्‍ली, बंबई, कलकत्‍ता और दक्षिण भारत सहित विदेशी व्‍यापारी भी डेरा डाले रहे थे। लेकिन अब गाजीपुर उजड़ा चमन है जैसा कि श्री रविंद्र नाथ टैगोर ने अपने उपन्‍यास में गाजीपुर का जिक्र किया था। एलबम से निकाल कुछ पुरानी तस्‍वीरों को दिखाते हुए रामजी कहते हैं-'बस गाजीपुरिया इत्र की सुगंध इस एलबम और यादें इन ब्‍लैक एंड व्‍हाइट फोटो ग्राफ्स तक सिमट कर रह गई हैं'। वे कहते हैं गाजीपुर को नई पहचान क्‍या मिलनी पुरानी भी खत्‍म हो चुकी है। फिर भी मुझे फख्र है कि मैं गाजीपुर का हूं और गाजीपुर हमारा है। 
 चारों तरफ होती थी गुलाब की खुशबू
गुलाब की खेती।
शहर से सटे फुल्‍लनपुर, गाजीपुर घाटर और भुतहिया टांड़ में फूलों की खेती करने वाले काश्‍तकार रामबचन, नगीना और 75 वर्षीय अनवर अली कहते हैं - किसी जमाने में गाजीपुर के चारों ओर गुलबा और चमेली की खुशबू होती थी। कहीं-कहीं केवड़ा भी उगाया जाता था। मुख्‍य रूप से गोंड़ा, गौसाबाद, बकुलियापुर सहित दर्जनों गांवों में सैकड़ो बिघे में गुलाब की खेती होती थी। किसान राम बचन कहते हैं - गाजीपुर से इत्र का कारोबार खत्‍म हो गया। शहर से सेटे होने के कारण अधिकतर किसानों ने खेतों की कीमत अच्‍छी मिलने के अपनी जमीन बेच दी। किसानों ने दूसरा कारोबार शुरू कर दिया। कुछ लोग आज भी शौकिया तौर पर चमेली की खेती करते हैं। अब तो शादी-व्‍याह के सीजन में वाराणसी से गुलाब ला कर कारोबार कर रहे हैं। 
छोडिए महाराज! इत्र कौन लगाता है
गाजीपुर के खत्‍म हो चुके इत्र उद्योग को पुनर्जिवित करने के संबंध में पूछे जाने पर  यहां के सांसद और बहुजन समाज पार्टी के नेता फजाल अंसारी कहते हैं  - छोडि.ए महाराज! आजकल लोग चांद पर जाने की बात करते हैं  और इत्र की। अब इत्र कौन लगा रहा है। युवाओं के रोजगार की बात करें। केंद्र और राज्‍य सरकार की उपेक्षा के चलते गाजीपुर बदहाल हो चुका है। बाढ़ में सब बह गया। प्रदेश सरकार ने धेले का काम नहीं किया। पुरानी चीजों को कौन पूछता है।
नहीं मिलता मनोज सिन्‍हा का नंबर 
पूर्व रेल राज्‍य मंत्री और यहां सांसद रहे मनोज सिन्‍हा के आधिकारी मोबाइल नंबर  पर कई बार संपर्क करने की कोशिश की गई लेकिन बात नहीं हो सकी। यही नहीं उनकी आधिकारिक मेल  भी नहीं खोली जाती। 

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