इंसानियत से जोड़ता है 'रोजा'
 (रमजान के मुबारक महीने में पवित्र कुरान का अवतरण हुआ था।   रमजान में अल्‍लाह के बंदों के लिए जन्‍नत के दरवाजे खुले रहते हैं)


दुर्गेश  मिश्र
रमजान (रोजा) का महीना मुसलमानों के लिए नेकी और बरकत का म‍हीना होता है। इस्‍लाम धर्मावलंबियों के मुताबिक रमजान के इसी मुबारक महीने में जन कल्‍याण के लिए पवित्र कुरान का अवतरण हुआ था। इस पाक महीने में अल्‍लाह के बंदों के लिए जन्‍नत के सभी दरवाजे खुले रहते हैं और सभी शैतानी ताकतों को रमजान के महीने में कैद कर लिया जाता है।
 रोजा के लिए कुरान शरिफ में 'सियाम' शब्‍द का प्रयोग किया है, जिसका मौलिक अर्थ होता है रुक जाना। इस्‍लाम धर्म के अनुसार प्रात: सूर्य की किरणों के निकलने से पहले और सूर्य के अस्‍त होने तक रोजा रखने वालों को स्‍त्री प्रसंग, खाना-पीना, सुगंध, इत्र लगाना, बुरा सोचना, बुरा सुनना, बुरा देखना, फरेब करना आदि अनेक अनैतिक कार्यों को करना सर्वदा वर्जित है। धर्म की दृष्टि से यह सबसे पवित्र महीना माना गया। इस महीने में इस्‍लाम को मानने वाले पूरे एक महीने तक उपवास रख कर अल्‍लाहताला के प्रति अपनी गहरी आस्‍था को अभिव्‍यक्‍त करते हैं। इस्‍लामी नवां महीना रमजान का महीना कहलाता है।  इसी महीने में मुसलमान दिनभर रोजा (उपवास) रखते हैं और रात में 'तराबीह (रमजान के महीने में शाम को पढ़ी जाने वाली नमाज) पढ़ते हैं।'

हमारे हर कर्मों का गवाह है अल्‍लाह
  हाफिज मोहम्‍मद असलम अंसारी के मुताबिक हजरत मुहम्‍मद (स.) ने स्‍पष्‍ट कहा है- अल्‍लाह के द्वारा बख्‍शे गए धन-सम्‍पत्ति का कुछ भाग अल्‍लाह के बंदों (जरूरतमंदो) पर खर्च करो, ईश्‍वर के बताए हुए रास्‍ते पर हमेशा चलो, खुदा तुम्‍हे नेकी बख्‍शेगा। रमजान में की गई एक नेकी के बदले ईश्‍वर नेकियां बख्‍शेगा ।  कुरान-ए-पाक में कहा गया है कि अल्‍लाह सर्वत्र है, सर्वज्ञ है, वह जर्रे-जर्रे में समाया हुआ है, वह हमारे गर्दन की नस से भी ज्‍यादा करीब है। वह हमारे सभी अच्‍छे-बुरे कर्मों को देखता है। जिनके अनुसार वह अपने बंदों को जन्‍नत और जहन्‍नुम नसीब कराता है।हाफिज मोहम्‍मद असलम अंसारी कहते हैं- कुरान-ए-पाक के दूसरे पारे में बताया गया है कि चाहे तुम मशरिक (पूरब) की तरफ रुख करो या मगरिब (पश्चिम) की तरफ यह सब कोरी जिलाहत है। श्रेष्‍ठता तो नेक अमली में है। उसी के अनुसार सबको आखिरत में एक जगह जमा होना है। बल्कि असल इबादत को अल्‍लाह पर इमान लाना है और फरमाबदारी करना है। र्इश्‍वर भक्ति सबसे अच्‍छा साधन अपनी बुराइयों पर रोक लगाना तथा खुद के बताए हुए नेक अमली के रास्‍ते पर चलना है।
तन और मन को संयमी बनाता है रोजा 

इस्‍लाम में आस्‍था रखने वाले प्रत्‍येक मुसलमान को रोजा रखना आवश्‍यक होता है, क्‍योंकि वर्ष के ग्‍यारह महीने तो आदमी अपनी मर्जी के मुताबिक जीवन जीता है, लेकिन एक महीने खुदा की मर्जी से जीवन जीये। इन दिनों मुसलमान दिन भर की भूख-प्‍यास की पीड़ा को सहन करते हुए अपने शरीर को संयमी और मन को पवित्र बनाते हैं। इन दिनों में कोई भी सच्‍चा मुसलमान किसी तरह का गलत कार्य नहीं करता है। इस्‍लाम में कुछ लोगों को विशेष परिस्थितियों में रोजा रखने से छूट दिया गया है। कुरान शरीफ के मुताबिक रोगी, वृद्ध, यात्री, बच्‍चे और गर्भवती महिलाओं को रोजे से छूट है। परंतु इन व्‍यक्‍तियों के लिए भी (सूर.वकर:2 /183) नियम है कि किसी आवश्‍यक कारण वश किसी दिन का रोजा छूट जाए तो उसके बदले दूसरे दिनों में रोजा रख कर गिनती पूरी कर देनी चा
हिए, और जिनको (बच्‍चों, गभवती स्त्रियों व बूढ़ों) रोजे में रखे गए उपवास के करण भूख और प्‍यास बर्दाश्‍त करना मुश्किल हो तो उनको इजाजत है कि किसी भी जरूरतमंद निर्धन व्‍यक्‍यिों को पेटभर भोजन दे दें, चाहे इतनी कीमत दे दें। सफर और बीमारी की आड़ में रोजे के बदले किसी गरीब को खना खिलाकर बच निकलने की कोई गुंजाइश रमजान में नहीं है।

जिस्‍मानी और रुहानी दोनों तरह से फायदेमंद है रोजा रखना
रोजा रखना रुहानी और जिस्‍मानी दोनो तरह से फायदेमंद है। आज का वैज्ञानिक युग भी इससे सहमत नजर आता है। उनका मानना है कि उपवास रखने से शीरर को लाभ मिलता है। कुरान शरीफ में बताया गया है कि कुछ लोगों ने रसुल्‍लाह (स.) से पूछा था की अल्‍लाह हमारे करीब है या दूर, हम दुआ धीमी आवाज में करें या जोर से उस पर उन्‍होंने फरमाया कि जिस तरह के कपड़ा बदन के साथ मिलता है और धड़कन दिल से ठीक उसी तरह अल्‍लाह हमारे सबसे करीबतर है।

ऊंच-नीच का भेद मिटाता है रमजान

रोजा का मक्‍सद इंसान को इंसानियत से जोड़ना है तथा एक स्‍वस्‍थ समाज एवं व्‍यक्‍तित्‍व की आधा रशिला रखना है। एक स्‍वस्‍थ इंसान के बिना एक सभ्‍य समाज एवं सुसंगठित राष्‍ट्र की कल्‍पना करना असंभव है। रमजान का महीना समाप्‍त होते ही ईद मनाई जाती है। जिसमें समाज के हर तबके के लोग अमीर-गरीब, मालिक-नौकर सभी एक साथ मिलकर ऊंच-नीच की दवार तोड़ आपसी भेद-भाव को मिटाकर एक दूसरे के गले मिल कर सामूहिक खुशियां बांटते हैं और मीठा खाना खाते हैं। रोजा सौहार्द्र का प्रतीक भी है, क्‍योंकि‍  रमजान के मुबारक महीने में रोजा खेलने के वक्‍त सभी लोग एक स्‍थान पर बैठकर एक ही थाली में प्रेम पूर्वक खाते हैं।

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