दुर्गेश मिश्र

आज इतिहास खुद को दोहरा रहा है। राजपूत राजाओं की आपसी कलह, एक दूसरे को नीचा दिखाने की चाह में किसी भी हद तक जाने की प्रवृत्त का परिणाम क्या हुआ इतिहास इसका गवाह है। राजपूतों की आपसी कलह की वजह से ही भारत में गुलाम, शर्की, तुलगलक, तुर्क और मुगल। न जाने किन-किन वंश की नींव पड़ी।
इतिहास के पन्ने पलटते रहे और इन्हीं पन्नों के एक सफे (पेज) पर गाधीपुरी न जाने कब गाजीपुर बन गया किसी को पता नहीं चला। और इसी गाजीपुर को हम स्वीकार करते चले गए। एक दौर वह भी आया जब गाजीपुर घाजीपुर बन गया।
समय चक्र चलता रहा। इतिहास के पन्नों में कभी स्वर्ण तो कभी स्याह अध्याय लिखा जाने लगा। यानी धीरे-धीरे महाराजा गाधि की राजधानी रही गाधीपुरी घाजीपुर हो गई। हम गुलाब, गेंदा और केवड़ा की खेती छोड़ न जाने कब अफीम बोने लगे। हमारी रगों में अफीम इस कदर दौड़ा कि यहां दुनिया का सबसे बड़ा अफीम कारखाना खड़ा हो गया। और तो और इसी गाजीपुर की माटी ब्रिटिश गर्वनर जनरल लॉड कार्नवालिस को इतनी भाई कि वह यहीं की माटी में सो गया। सदा के लिए।
लेकिन हां। नहीं बदला तो गंगा का वह प्रेम जिसकी आंचल में गाजीपुर आज भी अपने उस फटे लिबास में आबाद है, जिसमें गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर ने आज से करीब सौ साल पहले देखा था।
यहां रविंद्र नाथ टैगोर का जिक्र इस लिए आ गया। क्योंकि, जब वह तत्कालीन कलकत्ता से गाजीपुर आए थे तो उन्हें ऐसा कुछ नहीं दिखा जैसा उन्होंने सुन था। बकौल गुरुदेव ने कहा था- कहने को तो सुना था कि गाजीपुर में गेंदा, गुलाब और केवड़े की खेती होती है। यहां की गलियां इत्र से गमती हैं। लेकिन, यहां आनेपर ऐसा कुछ नहीं दिखा। वे आगे लिखते हैं- जब मैं गंगा किनारे खड़ा होता हूं तो मुझे दूर-दूर तक रेत और उजड़ा हुआ गाजीपुर दिखाई देखा है। ऐसा लगता है जैसे सफेद साड़ी में उजड़ी मांग लिए कोई विधवा स्त्री खड़ी हो। खैर उन्होंने अपना प्रसिद्ध उपन्यास 'नौका डूबी'। इसी गाजीपुर में लिखा था।

आज गाजीपुर की नौका एक बार फिर डूबी है। लेनिक यह नौका स्वतंत्र भारत की कथित राजनीतिक महात्वाकांक्षा और एक दूसरे को नीचा दिखाने की अपनी वही पुरानी आदतें। जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी ढोते आ रहे हैं।
अच्छी हो या बुरी गाजीपुर से घाजीपुर बनी इस लहुरी काशी को विश्व स्तर पर जो पहचान मिली वह अंग्रेजों ने दिलाई। इसके पीछे उनकी मंशा जो भी रही हो। अंग्रेजों ने अफीम कारखाना दिया। अंधऊ की हवाई पट्टी दी। भले ही इसका इस्तेमाल द्वितिय विश्व युद्ध के दौरान किया गया। लेकिन, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से सरकारें आई और गईं। गाजीपुर और गाजीपुर के लोगों के पिछड़ेपन और गरीब और गरीबी की बातें भी खूब हुईं। पर, नतीजा क्या निकला।

स्वतंत्रता के इन सत्तर सालों में यदि किसी ने गाजीपुर को उसकी नई पहचान दिलाने की कोशिश की। गाजीपुर को विकास के पथ पर आगे ले जाने की कोशिश की तो उसे आगे से ही हटा दिया। अपने राजपूत होने के तुक्ष अहंकार के चलते। जाति और अहंकार। ये दो ऐसी बीमारिया हैं जो न समाज को आगे बढ़ने देती हैं और ना ही देश को । और तो और खुद उस जाति को भी आगे नहीं बढ़ने देती।
हमारा यह विचार कुछ लोगों को कड़वा तो जरूर लेगेगा पर सत्य है। अहं की इस लड़ाई में गाजीपुर को हम किस मोहाने पर खड़ा कर दिए हमें खुद पता नहीं। यह हमारा जाहिलपन नहीं है तो और क्या है। यानी स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद भारतीय संसद में गाजीपुर की जिस फटेहाल, अशिक्षा, बीमार मानसिकता, गरीबी और पिछड़े पन के गीत गाए गए । यानी गाजीपुर के लोग खुद नहीं चाहते कि वो बदहाली का अपना फटा लिबास बदले जिसे वो सालोंसाल से पहने हुए हैं। खैर, राजपूतों और भूमिहारों के इस जंग में गाजीपुर फिर उसी चौराहे पर आ खड़ा हुआ है, जहां आज से 70 साल पहले खड़ा था।
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