प्रेम का प्रदर्शन नहीं आनंद लीजिए

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 दुर्गेश मिश्र
सात दिनों तक चलने वाले इजहार-ए-मोहब्‍बत का 'महापर्व' रोज डे के साथ सात फरवरी से शुरू हो गया है। इसे लेकर प्रेम 'दिवानों' खास कर युवाओं काफी उत्‍साह है।  प्रेम प्रदर्शन के नाम पर कई बार कई जगहों पर भद्दी तस्‍वीर भी देखने को मिलती है। खैर वैलेनटाइन डे पश्चिमी देशों से भारत में आया 'पर्व' है सो इसका विरोधी भारी विरोध भी होता है। मान्‍यता है कि इस पर्व को संत वैलेटाइन की याद में मनाया जता है। ऐसे में इस प्रेम का प्रदर्शन न करते हुए इसका आनंद लेना चाहिए ठीक उसी तरह जैसे गूंगा गुड़ खाकर अनुभूति करता है। 
   चूंकि प्रेगम का अंकुर मनुष्‍य के हृदय में होता है और उसका सौदागर कोई भी हो सकता है।  भले ही वह राजा हो या प्रजा। तानाशाह हो या फकीर।  देव हो या दानव...।  हिटलर जैसा तानाशाह जिसने सैकड़ों यहूदियों को बेझिझक मौत के घाट उतार दिया, प्रेम की चपेट में आने से नहीं बच सका।  यह राह कोई आसान राह नहीं है।  इस राह में किने शाह आए और फकीर बने।  कबीरदास जी कहते हैं-
'कबिरा यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहि।
सीस उतारे भुईं धरे, सो पैठे घर मांहि।।''
प्रेम सिर का सौदा है।   इस सौदे में लैला-मजनू, शीरी-फरहाद, शशी-पन्‍नू, सोहिनी-महिवाल और हीर-रांझा ने सिर दिए तभी तो आज सदियां गुजर जाने के बाद भी उनकी प्रेम गाथा हमारे हृदयों को भिगो देती है। 
संसार की सबसे पड़ी शक्ति है प्रेम 
प्रेम संसार की बसे बड़ी शक्ति है, जिसके बल से अनहोनी होनी में बदल जाती है।  इसी प्रेम के चलते मुंजराज ने तैलब की राजधानी में बची चौराहे पर अपना सर कटाना कबूल किया।  दिल्‍ली दरबार का आखिरी हिंदू सम्राट पृथ्‍वी राज चौहान ने कन्‍नौज नरेश जयचंद से ऐसी शत्रुता मोल खरीदी जिसकी कमीमत उसे अपने सिर की बलि चढ़ाकर अदा करनी पड़ी।  प्रेम में जहां आत्‍मा बलिदान होती है वहीं उसमें ईर्ष्‍या भी होती है।  यह किसी नियम और लोक लाज का मोहताज नहीं होता है।  
स्‍त्री-पुरुष के आकर्षण से आरंभ हो विभिन्‍न सांचों ढलता है प्रेम
 प्रेम का आरंभ स्‍त्री-पुरुष के सहज आकर्षण से होता है और उसके बाद उसे विभिन्‍न सांचे में ढाला जा सकता है।  जैसे परिवार का प्रेम, देश का प्रेम, धन का प्रेम, स्‍त्री का प्रेम, विद्या का प्रेम अथवा ईश्‍वर की भक्ति का प्रेम।  भगवान कृष्‍ण के प्रति गोपियों का प्रेम हो या कृष्‍ण का उनके प्रति।  विरह की अग्नि में जल रही गोपियों को देख जब उद्धव उन्‍हें समझाने का प्रयत्‍न करते हैं तो गोपियां कहती है- 
' उधव मन न भये दस बीस, एक हुतो सो गयो श्‍यामसुंदर संग कौ अवराधे ईश।।'
पत्‍नी के धिक्‍कारने पर गोस्‍वामी तुलसी दा जी ने राम चरित मानस की रचना कर भगवान की भक्ति की ज्‍योति घर-घर जलाई।  यह भी तो प्रेम का ही एक रूप है।  प्रेम के कारण ही तो बनवास के समय भगवान राम शबरी के जूठे बेर तक खा जाते हैं।  कामदेव को जलाने वाले शिव प्रेम के वशीभूत हो सती की मृत देह को कंधे पर रख पागलों की भांति समस्‍त चराचर में घूमते रहे। 
जाति और धर्म से परे है प्रेम
प्रेम न हिंदू है न मुस्‍लमान।  प्रेम को किसी जाति-धर्म से कोई सरोकार नहीं है।  और ना ही इसे किसी मजहब के बंधन में बांधा जा सकता है और ना ही इसे किसी तराजू में तोला जा सकता है। 
   प्रेम तो नील गगन में भागते हुए बादलों की तरह उन्‍मुक्‍त  है। प्रेम तो मीरा का श्‍याम है।  नरसी का भात और विदूर का साग है।  प्रेम तो द्रोपदी की साड़ी।  अर्जुन का सारथी हौ और युधिष्ठिर का राजसुय यज्ञ है...।  प्रेम से यदि देखा जाए तो इंसान तो क्‍या पत्‍थर भी भगवान नजर आता है।  
 प्रेम ऐसी चीज है जिसके आगे मनुष्‍य का बस नहीं चलता।  फिर वह प्रेम देश और समाज के प्रति हो या किसी स्‍त्री का पुरुष के प्रति।  कोई भगत सिंह और चंद्रशेखर जैसा नौजवान देश की आजादी के लिाए अपने प्राण तक न्‍यौछावर कर देता है तो कोई मीरा कृष्‍ण के प्रेम में विष को अमृसमझ पी जाती है तो कोई तुलसी जैसा प्रमु प्रेमी पनही (जूते) में भी प्रसाद लेना स्‍वीकार करता है।  वैसे ही कोई मजनू अपनी लैला के लिए जान तक देने को तैयार खड़ा है।  
जन्‍म लेते ही शुरू हो जाती है प्रेम की खोज
मनुष्‍य इस जगत में आते ही प्रेम की खेज शुरू कर देता है।  भले ही वह मां के आंचल में तलाशता हो।  भाई-बहन के स्‍नेह में या पिफर प्रेमिका की बाहों में अथवा आदर्शें की कल्‍पना में।  प्रेम का संबंध कभी भी कहीं भी किसी से भी हो सकता है।  चाहे वह अपना परिि‍चत हो या कोई अजनबी।  हुमायूं ने रानी कर्मावती को तो देखा तक नहीं था।  लेकिन, मुसलमान होते हुए भी राखी के कच्‍चे धागे में बांधा मेवाड़ की तरफ चल पड़ा था।  
 आजाद परिंदे की तरह है प्रेम
मनुष्‍य संसार के हर कोने में स्‍त्री-पुरुष के प्रेम को विवाह के दायरे में कैद करने की कोशिश करता है, मगर उसमें वह सफल नहीं रहा।  विवाह एक सामाजिक व्‍यवस्‍था।  स्‍त्री-पुरुष के संबंधों की स्‍वीकृति है।  वह उनके बीच प्रेम के पुल नहीं बांध सकता, बल्कि जब विवाह प्रेम के आधारों पर खड़ा नहीं होता तो वह रेत पर खड़ी दीवार की तरह खुद ही ढह जाता है या अपने पिंजरे में कैद स्‍त्री और पुरुष को घोंट डालता है। 
  प्रेम तो आजाद परिंदे की तरह है।  प्रेम के बिना तो जीवन अधूरा है, जग सुना-सुना है।  लो मनुष्‍य कभी किसी से प्रेम नहीं करता उसे इस सुंदर संसार में आने का कोई हम नहीं बनता।  
गीता और कुरान है प्रेम

कुदरत ने प्रेम के कच्‍चे सूत में प्रकृति के एक-एक कण को अच्‍दी तरह पिरोकर कही परिवार का रूप दिया है तो कहीं समाजका...।  प्रेम बुद्ध और नानक है।  गीता और कुरान है।  इसी प्रेम की नाजुक डोर जब टूटती है तो भाई-भाई में, पिता-पुत्र में और पति-पत्‍नी में महाभारत छिड़ जाता है। तभी तो रहीमदास जी कहते हैं-
 ' रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय।
टूटे ते पिफर ना जुड़े, जुड़त गांठ पडि़जाए।।''