भारतीय इतिहास का एक ऐसा राजा जिसके बारे में कहा जाता है कि वह कभी सिंहासन पर बैठना पसंद नहीं करता था। उसका राजतिलक तो हुआ था एक महाराजा के रूप में लेकिन उदारता और उदयालुता इतनी की लोग उसे सुदर्शन नायक के रूप में जानने लगे थे। यह महाराजा कोई और नहीं, बल्कि शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत हैं। जिनकी वीरता और उदारता के किस्सों से इतिहास के पन्नहे भरे पड़े हैं।
जमीन पर बैठक दरबार लगाते थे रणजीत सिंह
महाराजा रणजीत सिंह के बारे में कहा जाता है कि एक महाराजा होते हुए भी वह राज सिंहासन पर कभी नहीं बैठे। उन्हें दरबारियों के साथ मनसद के सहारे कालीन पर बैठक कर दबरबार लगाना अधिक पंसद था। 21 वर्ष की उम्र में ही रणजीत सिंह ‘महाराजा’ की उपाधि से अलंकृत हुए। लेकिन, अपने कुशल सैन्य नेतृत्व और अपनी उदार छवि एवं न्याय प्रिय लोकप्रियता के कारण इतिहास उन्हें ‘शेर – ए – पंजाब’ के नाम से जानता है।
17 वर्ष की उम्र में संभाल ली थी जागीर, 21 वर्ष में बन गए महाराजा
धूल धूसरीत पंजाब के इतिहास के सफों (पन्नों) को पलटे तो पता चलता है कि महाराजा रणजीत सिंह ने 21 वर्ष की उम्र में ही महाराजा बन गए थे। महाराजा रणजीत सिंह का जन्म सन 1780 में तत्कालीन भारत के गुजरांवाला (अब पाकिस्तान) में सुकरचक्या जागीर के मुखिया महासिंह के घर हुआ था। ऐतिहासिक साक्ष्यों के मुताबिक 12 वर्ष कि उम्र में ही रणजीत सिंह के पिता का स्वर्गवास हो गया। सन 1792 से 1797 तक उनकी जागीर की देखभाल इनकी माता- सास और दीवान लखपतराय सहित प्रतिशासक परिषद ने की। सन 1797 में महाराजा रणजीत सिंह ने 17 वर्ष की उम्र में ही अपनी जागीर का सारा काम खुद ही संभाल लिया।
40 वर्ष तक किया शासन, कांपते थे अफगान और अंग्रेज भी
महाराजा रणजीत सिंह एक अनोखे शासक थे। ऐसा शासक मध्यकालीन भारतीय इतिहास में कोई और नहीं है। कहा जाता है कि महाराजा रणजीत सिंह ने सन 1801 में बैसाखी के दिन लाहौर में श्री गुरु नानक देव जी के बंशज बाबा साहब बेदी के हाथों माथे पर तिलक लगवाकर अपने आपको एक स्वतंत्र भारतीय शासक के रूप में स्थापित किया। चालीस वर्ष के अपने शासनकाल में महाराजा रणजीत सिंह ने इस स्वतंत्र राज्य की सीमाओं को अंबाला से मुल्तान तक विस्तृत किया। उन्होंने अपने शासन को इतना सुदृढ़ किया कि अफगानों से लेकर अंग्रेज तक किसी में भी उनके राज्य में घुसने की हिम्मत नहीं हुई।
खलसा के नाम से किया शासन
अपने राज दरबारियों के साथ मनसद के सहारे जमीन पर बैठने वाले महाराजा रणजीत सिंह ने कभी अपने नाम से शासन नहीं किया। वे हमेशा खालसा या पंथ खालसा के नाम से शासन करते रहे। एक कुशल शासक के रूप में रणजीत सिंह ने सन 1805 में भेष बदलकर लार्ड लेक के शिविर में जाकर अंग्रेजी सैन्य संगठन और उसकी पद्दति को देखा। इसके बाद उन्होंने स्वतंत्र ढंग से लड़ने वाली अपनी सेना को संगठित किया। महाराजा रणजीत सिंह के बारे में इतिहासकार जेडी कनिंघम ने कहा था- 'इसमें कोई शक नहीं रणजीत सिंह की उपलब्धियां महान थी। उन्होंने पंजाब को एक आपसी लड़ने वाले संघ के रूप में प्राप्त किया तथा एक शक्तिशाली राज्य के रूप में परिवर्तित किया। ”.