फिर याद आए 'गंगापुत्र'


दूरदर्शन के छोटे पर्दे पर ' मै समय हूं' की गूंज एक बार फिर सुनाई देने लगी।  करीब 30 साल पहले 90 के दशक में जब इस पौराणिक महाकाव्‍य महाभारत को टीवी पर उतारा गया था उस समय उसके निर्माताओं को यह यकीन नहीं था कि उनकी यह रचना अपने कीर्तिमानों का वह मिनार खड़ा करेगी जिसकी बराबरी करना किसी के लिए संभव नहीं होगा।  
  उन दिनों हर रविवार सुबह नौ बजे (जिसे आज प्राइम टाइम कहा जाता है) 'यदा यदा ही धर्मस्‍य' की गूंज के साथ जैसे ही यह पौराणिक धारावाहिक शुरू होता था गलियां सुनसान हो जाती थीं और लोग ब्‍लैक एंड व्‍हाइट लकड़ी की शटर वाली टीवी के सामने लोगों का हुजूम उमड़ पड़ता था।  महाभारत धारावाहिक को लोकप्रियता के सोपान तक पहुंचाने में पूरी टीम ने मेहनत की थी।  महाभारत की इसी टीम में से एक थे डॉ: राही मासूम रजा।  
  अद्भुत लेखन शैली, संस्‍कृतनिष्‍ठ हिंदी को बना दिया सरल 
 यह डॉ: राही मासूम रजा की लेखनी का ही जादू था कि उस समय महाभारत के संवाद लोगों को कंठस्‍थ हो गए थे।  महाभारत की पटकथा लिखते समय राही ने धारावाहिक के मांग के अनुसार एक ऐसी संस्‍कृतनिष्‍ठ लेखन शैली का हाथपकड़ा जो थोड़ी कठिन थी।  लेकिन यह उनकी कलम और सशक्‍त लेखनी का ही कमाल था कि इस संस्‍कतनिष्‍ठ जटिल हिंदी को इतना सुगम बनार कर प्रस्‍तुत किया कि महाभारत के डायलाग बच्‍चे-बच्‍चे जुबान से सुनने को मिलने लगा था। 

आधुनिक युग के 'वेदव्‍यास' थे राही 
डॉ/ राही मासूम रज़ा
एक बार फिर समय का चक्र घूमा है और लोग महाभारत लिखने वाले कलियुग के 'वेदव्‍यास' डॉक्‍टर राही मासूम रजा को याद करने लगे हैं।  इसके साथ ही राही साहब की जन्‍मभूमि गाजीपुर और गंगौली का नाम दोबारा चर्चा में आ गया है।  गंगा जमुनी तहजीब जिस पैरोकार को लोग करीब 28 वर्ष पहले भूले चुके थे उनकी रचनाएं आज फिर से जिवंत हो उठी है। लोगों को यह भी कहते सुना जा रहा है कि काश! आज राही होते। 
  खुद को गंगा पुत्र कहते थे डॉक्‍टर राही
 उत्‍तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के गांव गंगौली निवासी डा: राही मासूम रजा कहते थे कि मुझसे ज्‍यादा भरत की सभ्‍यता और संस्‍कृति के बारे में कौन जानता है। गाजीपुर के इसी गंगौली में 1927 में जन्‍में राही खुद को गंगा किनारे वाला या ' गंगापुत्र' कहा करते थे।  कहते भी  क्‍यों नहीं।  गंगा किनारे वाले इसी गाजीपुर शहर के बरबरहना मोहल्‍ले में राही बचपन से तरुणाई तक रहे।  उनकी रगों में इसी गंगा का पानी लहू बन कर प्रवाहित होता था।  तभी तो उनकी रचनाओं में गाजीपुर और गंगौली का जिक्र बारबार आता था।  चाहे वह नीम का पेड़ हो, ओस की बूंद हो, कटरा बी आरजू हो, सीन 75 हो या कालजयी रचना ' आधा गांव' हो।
  

मेघदूत से महादेव को संदेश पहुंचाने की बात करते थे राही
तीन सौ से अधिक फिल्‍मों की पटकथा लिखने वाले राही  जानते थे कि सामाजिक कुरीतियों का निवारण हमारी अपनी संस्कृति से ही निकल कर आएगी। इसीलिए न उनसे तुलसी छूट पाए और न कालिदास और इसीलिए वे कालिदास के मेघदूत से महादेव को संदेश पहुंचाने की बात करते हैं। प्रेमचंद जी ने सृजन और साहित्य पर बात करते हुए कहा था, "सीमा के उल्लंघन में ही सीमा की मर्यादा है।" विभाजन से आहत रज़ा साहब हमेशा मिली-जुली संस्कृति के पैरोकार रहे हैं। राही का 'आधा गांव' हो या 'नीम का पेड़'। उनकी रह  रचना में विभाजन का दर्द साफ झलकता था।  
      -दुर्गेश मिश्र
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