यह हम नहीं कह रहे हैं। बल्कि, यह शब्द उन लोगों के है जिन्होंने मुल्क की आजादी के जश्न के साथ-साथ मजहबी उन्माद और दंश झेला है और इसे देखा है। बेशक, भारत के पश्चिमी छोर से विस्थापित हो कर पाकिस्तान बनने के बाद भारत आए। कुछ यही हाल सरहद के इस पार भी रहा। जो यहां सबकुछ छोड़ कर एक नए मुल्क पाकिस्तान चले गए। इस विभाजन का दर्द, कत्ल-ओ-गारद पंजाब और बंगाल ने बहुत करीब से देखा और झेला है।
आज हम पंजाब के इसी सरहदी जिला अमृतसर के कुछ ऐसे लोगों की दर्दभरी दास्तान बताने जा रहे हैं जिन्हों ने मुल्क के आजाद होने का जश्न भी मनाया तो विस्थापन का दर्द भी झेला। सबसे ज्यादा शरणार्थी कैंप भी अमृतसर में ही बनाए गए थे। पश्चिमी पंजाब (अब पाकिस्तान) से आए लोग भी इसी सरहदी जिलों (अमृतसर, तरनतारन और गुरदासपुर) में बसे हैं। यहां आज भी कुछ ऐसी इमारतें अपना वजूद बचाए हुए हैं जिनमें कभी वो लोग रहा करते थे जो आज मजबह के आधार पर बने नए मुल्क पाकिस्तान में जा कर बस गए हैं।
बंटवारे के बाद वीरान रहीं इमारतों में या तो उधर (अब पाकिस्तान) से आए लोग रह रहे हैं या उन इबातदगाहों का इस्तेमाल मंदिर या गुरुघर के रूप में किया जा रहा है। यानी सात दशक बाद भी उनकी पवित्रता को कायम रखा गया है।