Holi 2024 : सैदपुर के चटख रंगों के बिना अधूरी है होली


सैदपुर (Ghazipur) : होली में अब कुछ ही दिन शेष रह गए हैं। ऐसे  में सैदपुर के चटख रंगों के बिना होली अधूरी है। जैसे जैसे होली नजदीक आती जा रही है वैसे वैसे सैदपुर के लाल, हरे और पीले रंगों की याद भी आने लगती थे।  कपड़ हो या गाल ये रंग अगर कहीं भी लग जाते थे तो इन्हें छुड़ाने में काफी मशक्कत करनी पड़ती थे, लेकिन अब बदलते समय के साथ अब यह उन दिनों की बात बन कर रह गया है।    

  सैदपुर के असली रंगों को जलवा यह था कि ये रंग गाजीपुर के लोगों की ही नहीं दूसरे प्रदेशों और देशों के लोगों को भी अपने रंग में रंग दिया करते थे।  सैदपुर के रंग उद्योग की धाक   भारत के साथ-साथ नेपाल, तिब्बत और बंगला देश में भी थी। सैदपुर के रंगों के इन्हीं कारखानों में कभी पुड़िया और टिकिया वाली स्याही भी बना करती थी। उस समय सैदपुर और आसपास के हजारों लोग इस  उद्योग से जुड़े हुए थे,  लेकिन अब यहां के रंग फीके पड़ गए हैं। और होली बे रंग होती जा रही है। 

सैदपुर के विनोद कुमार दुबे बताते हैं कि यहां कभी बेल बूटे बनाने, कपड़े रंगने और छपाई के काम आने वाले रंगों का निर्माण भी होता था। यही नहीं यहां पुड़िया वाला नील और रिनपाल भी बना करते थे। वे कहते हैं कि इस कुटिर उद्योग में लगे लोगों को रंगरेज कहा जाता था। इन्हीं रंगज शब्द का प्रयोग मैं तुलसी तेरे आंगन की फिल्म में डा: राही मासू रजा ने किया था। गीत के बोल थे 'बलि बलि जाऊं मो तो रंगरेजवा...'। डा: राही भी गाजीपुर के ही थे तो वही भी सैदपुर के रंगों और यहां रंगरेजों से अच्छी तरह वाकिफ थे।  किसी समय में सैदपुर के बने लाल,  गुलाबी, वसंती, हरे और बैंगनी रंगों की पुड़िया वाली नील की बड़े स्तर पर मांग होती थी। यहां तक कि मिठाइयों में भी सैदपुर में बने रंगों का इस्तेमाल होता था। सैदपुर का मालगोदाम बारहो माह इन रंगों के कार्टन से भरे रहते थे और इनका निर्यात होता था। 

    सैदपुर के ही सियाराम पंसारी करते हैं यह कुटीर उद्योग अब संरक्षण और प्रोत्साहन के अभाव में अंतिम सांसे गिन रहा है।  वे कहते हैं कि बाजारों में पुड़िया वाले रंगों की मांग नहीं रह गई। सरकंडे की कलम से लिखने का रिवाज खत्म हो गया। पुड़िया वाले नील की जगह अब लिकविड नील आने लगे इसके साथ ही सरकार का भारीभरम कर भी इस उद्योग की कमर तोड़ रहा है। रंग उद्यमी  और यहां रंग काखाने में काम करने वाले लोग कहते हैं  कुटीर उद्योग होने के बावजूद भी इस उद्योग को बढ़ावा देने की तरफ सरकार कोई ध्यान नहीं दे रही है। 

पड़ोसी देशों में भी था सैदपुर के बने रंगों का बोलबाला

करीब 50 साल पहले गाजीपुर और उसके आसपास के जिलों में ही नहीं बल्कि पड़ोसी देश नेपाल, तिब्बत, भूटान तक सैदपुर के बने रंगों का बोलबाला था। इसके अलावा बिहार, बंगाल, आसाम, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब हरियाणा , जम्मू कश्मीर सहित अन्य राज्यों में भी सैदपुर के मुंबई कलर एजेंसी का बना रंग जाया करता था। इसके अलावा सैदपुर के आस-पास के गांव में रहने वाले सैकड़ों परिवारों की आजीविका भी इन्हीं रंगों की बदौलत चला करती थी, लेकिन दुर्भाग्य से आज बदलते परिवेश कारण यह उद्योग सिमट कर रह गया है।

1960 रू हुआ में शुरंग उद्योग

सैदपुर के लोगों का कहना है कि यहां पर रंग उद्योग की शुरुआत सन 1960 में हुई थी लोगों के मुताबिक शुरुआती दौर में शहर के आप नगर में पंडित बनवारी लाल पांडे ने मुंबई कलर एजेंसी के नाम से रंग उद्योग शुरू किया था। लोगों के मुताबिक इस कारखाने में रंगों में प्रयुक्त किया जाने वाला रसायन मुंबई से मंगवाया जाता था इसलिए इस कारखाने का नाम मुंबई कलर्स एजेंसी रखा गया।

उस समय सैदपुर के बने रंगों की खबर देश के छोटे बड़े शहरों के अलावा दूसरे मुल्कों में भी ज्यादा थी कहते हैं कि उस जमाने में सैदपुर और और बिहार के माल गोदाम मुंबई कलर एजेंसी के बने रंगों के काटून से एयरटेल होते थे लोगों के मुताबिक होली के सीजन आते ही कलर एजेंसी में रंग बनाने का काम और तेज हो जाता था।

होली आते ही लाल हो जाता था गंगा का पानी

सैदपुर के रंगमहल घाट पर रहने वाले रामखेलावन गुप्ता कहते हैं कि अब तो सैदपुर के रंगों की बस याद ही जेहन में रह गई है। वे कहते हैं 80-90 के दशक में सैदपुर के रंगों के बिना होली में रंग नहीं खिलता था। उस समय सैदपुर का रंग उद्योग अपने चरम पर था। होली नजदीक आते रंगों को मांग बढ़ जाती थी। इन कारखानों में काम करने वाले रंगरेज काम खत्म होने के बाद गंगा में नहाने आते थे तो घाट का पानी सैदपुर के रंगों से लाल हो जाता था। लेकिन अब यह सब बस यादों में ही रह गया है। अब गीने चुने कारखाने ही बचे हैं जहां नाम मात्र के रंग बन रहे है।