अंतिम सांस ले रही लोक कला लौंडे की नाच और नौटंकी



दुर्गेश मिश्र 
भारतीय लोक संस्‍कृति का हिस्‍सा रहा नाटक-नौटंकी आज अंतिम सांसें गिन रहा है।  जरा याद कीजिए 80-90 का वह दौर जब पूस की रात में भी लोई-कंबल ओढ़ कर कुछ लोग सामियाने में तो कुछ लोग उसके बाहर तक बैठक कर पूरी रात नाटक-नौटंकी देखा करते थे।  इसकी लोकप्रियता का आलम यह था कि अपना गांव तो छोडि़ए कोस डेढ़ कोस के भी गांवों में लोग नाच देखने जाया करते थे।  लेकिन, अब बदलते समय के साथ यह सब बस यादों में सिमट कर रह गया है।  

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देश के कई राज्‍यों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है नाटक-नौटंकी
नौटंकी  भारत, पाकिस्तान और नेपाल के एक लोक नृत्य और नाटक शैली का ही दूसरा नाम है। लोक नाट्य परम्परा में महाराष्ट्र का तमाशा, गुजरात, सौराष्ट्र का भांवी नाट्य, कर्नाटक का यक्ष गान, केरल का कुड्डियाटम, असम का ओज पाली, कश्मीर का भांड-पत्थर, हरियाणा, पंजाब का स्वांग, उत्तर प्रदेश बिहार की नौटंकी तथा रास लीला, बिहार का नाटक और रामलीला, बंगाल तथा उड़ीसा का आणिक्य-नाट, मणिपुर का अरब-पाला, राजस्थान का गौरी-ख्याल, गोवा का रनभाल्यम और काला, मध्य प्रदेश का नाच प्रसिद्ध है। 
स्‍वांग परम्‍परा की वंशज है नौटंकी
नौटंकी भारतीय उपमहाद्वीप में प्राचीनकाल से चली आ रही स्वांग परम्परा की वंशज है। कहा जाता है कि इसका नाम मुल्तान (पाकिस्तानी पंजाब) की एक ऐतिहासिक ‘नौटंकी’ नामक राजकुमारी पर आधारित 'एक शहज़ादी नौटंकी’ नाम के प्रसिद्ध नृत्य-नाटक पर पड़ा। नौटंकी और स्वांग में सबसे बड़ा फर्क यह है कि  स्वांग अधिकांशत: धार्मिक विषयों से संबंधित होता है। जबकि, नौटंकी के मौज़ू प्रेम और वीर-रस पर आधारित होते हैं। पंजाब से शुरू होकर नौटंकी की शैली पूरे उत्तर भारत में फैल गई। समाज के बड़े घरानों के लोग नौटंकी को ‘अश्लील’ समझते थे।  बावजूद इसके यह लोक-कला पनपती गई।

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इस तरह शुरू हुआ था नाटक का मंचन
हिन्दी में अव्यावसायिक साहित्यिक रंगमंच के निर्माण का श्रीगणेश आगाहसन ‘अमानत’ लखनवी के ‘इंदर सभा’ नामक गीति-रूपक से माना जाता है।  ‘इंदर सभा’ शामियाने के नीचे खुला स्टेज पर हुआ था।  नौटंकी की तरह तीन ओर दर्शक बैठते थे और एक ओर तख्त पर राजा इंदर का आसन लगा दिया जाता था।  साथ में परियों के लिए कुर्सियां रखी जाती थीं। साजिंदों के पीछे एक लाल रंग का पर्दा लटका दिया जाता था। इसी के पीछे से पात्रों का प्रवेश कराया जाता था। राजा इंदर, परियाँ आदि पात्र एक बार आकर वहीं उपस्थित रहते थे। वे अपने संवाद बोलकर वापस नहीं जाते थे। उस समय नाट्यारंगन इतना लोकप्रिय हुआ कि अमानत की ‘इंदर सभा’ के अनुकरण पर कई सभाएं रची गई, जैसे ‘मदारीलाल की इंदर सभा’, ‘दर्याई इंदर सभा’, ‘हवाई इंदर सभा’ आदि। माना जाता है कि यहीं से सामियाने के अंदर नाटकों का मंचन होना शुरू हुआ। 
 गद्य और पद सुमेल है नौटंकी का
नाटक और नौटंकी दोनो के मंचन का तरीका एक जैसा है।  नाटक में जहां गद और दोहे जाते हैं।  वहीं नौटंकी में गद्य और पद होने होते है।  यानि, बहरत, दोहा, सोरठा और गद्य में इसके डॉयलॉग बोले जाते हैं।  नौटंकी आल्हा-ऊदल, सुल्ताना डाकू, भक्‍त पूरनमल, शोले, विदेशिया, राजा भरथरी, हरिश्चन्द्र, सती बिहुला, अंधेर नगरी, मोरोध्‍वज, अमर सिंह राठौर जैसे नाटकों का मंचन पद में  होता था। 
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80-90 के दशक में अधिक थी मांग
याद  है 1980-90 का वह समय जब नाच, नौटंकी, रामलीला में ढोल और नगाड़े की थाप जब लाउडस्‍पीकर से क्षेत्र दूर तक सुनाई देती थी। उस समय लालटेन, पुआल आदि लेकर गर्मी हो या सर्दी शाम से लेकर सुबह तक नौटंकी या नाटक देखते थे। पहले गांवों में इस कला से जुड़े लोगों की टीम होती थी जो शादी, जन्मोत्सव, मेला आदि जगहों पर कार्यक्रम करने के लिए महीना दो महिना पहले से सट्टा (बुकिंग) हो जा था।  प्रत्येक गांव के लोग इस कला से जुड़ते थे, जो अपने गांव पहचान हुआ करते थे। 
मशहूर थी कानपुर, लखनऊ, बनारस और गोरखपुर की नौटंकी
नाटक कंपनी से जुड़े गाजीपुर के सुरेश राम और श्रीनाथ चौहान कहते हैं किसी जमाने में लखनऊ, कानपुर, बनारस और गोरखपुर की नौटंकी मशहूर हुआ करती थी। लेकिन आज इस कला के कद्रदान नहीं है।  अलबत्‍ता नाटक और नौटंकी से जुड़े कलाकार और इनका परिवार भुखमरी के कगार पर आ गया है। इसके साथ ही सदियों से चली आ रही लोककला खत्‍म होने के कगार पर पहुंच चुकी है। हालत यह है कि इससे जुड़े लोग रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।

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आर्केट्रा ने ली जगह, इंटरनेट की दुनिया में खो गई सदियों पुरानी विधा
सुरेश राम कहते हैं - अब नाटक और नौटंकी की जगह आर्केट्रा ने ले लिया है।  आर्केट्रा के नाम पर फुहड़ता और अश्लिलता परोसी जा रही है। मनोरंजन के नाम पर दोअर्थी गानों पर अर्धनग्‍न डांस हो रहा है।   मनोरंजन के आधुनिक साधनों मल्टीप्लैक्स, मॉल, टीवी और इंटरनेट की इस दुनिया में नौटंकी कहीं खो सी गई है। यह लोक परम्परा अब गांवों से खत्‍म हो चुकी है।