यह उन दिनों की बात है जब घर में एक सउरिहा घर हुआ करता था। यह घर अक्सर पछिम की तरफ होता था जिसका दरवाजा पूरब दिशा में खुलता था। इस घर से परिवार के हर बड़े बुजुर्ग की यादें जुड़ी होती थी। मसलन इसी घर में दादा, बड़का बाउ, बाउ जी, चाच्चा और बुआ का जन्म हुआ था।
यह सउरिहा घर 90 के दशक तक गांवों में हर घर में होता था, लेकिन 90 के दशक के बाद समय तेजी से बदला और इसकी जगह गांव और शहर के अस्पतालों ने ले ली और सउरिहा घर का अस्तित्व ही खत्म हो गया।
सउरिहा घर यानि प्रसूति गृह। यह वह घर होता था जिसमें बबुआ या बुचिया का जन्म होता था। इसी सउरिहा घर में दाई मां आती थी और जच्चा-बच्चा की मालिस करती थी। वह भी दिन में तीन टाईम । इस सउरिहा घर में प्रसूता अपने नवजात के साथ सात दिन तक रहती थी।
सउरिहा घर के दरवाजे पर एक बोरसी में घान की भूसी या लकड़ी का बुरादा भर कर आग रख दी जाती थी। आग भी ऐसी की वो जलती नहीं थी, बस उसमें से धुआं उठता रहता था और खोरने पर उस धान की भूसी की आग से ताप महसू होता था।
जच्चा- बच्चा की मालिश करने वाली जो दाई मां आती थीं, वह पूरे गांव की दाई मां होती थी। तरह-तरह की कहानी सुनाती। कहतीं, चीलरा क अउर चीलरा के पापा क भी सउर हमही अगोरले हईं। इहे करते करत हम बुढ़ाई गइलीं।
का बताई बबुनी तोहरा के, लइका होखावे क गुन हम अपना सास से सीखले हईं। अब न अस्पताल चलल बा और अउर मेमिन (नर्स) आइल बाड़ी स।
दाई मां जितनी बार जच्चा-बच्चा के मालिश करने आतीं, उतनी बार पहले हाथ-पैर धोतीं फिर उसी बोरसी पर हाथ सेंक के सउरिहा घर में जाती। इधर, हम बच्चों की उत्सुकता भी सउरिहा घर में जाने की बनी रहती। बचवा क रोने की आवाज धीरे से सुनाई देती तो उसे खेलाने की उत्सुकता जागती । मौका मिलते ही हम पैर धो कर पहले आग पर सेंकते और फिर सउरिहा घर में घुस जाते।
सउरिहा घर में घुस के हम जच्चा-बच्चा के खटिया के गोड़वारी बैठ के बबुआ को निहारते। बबुआ को गोद में तो ले नहीं पाते थे बस देखते रहते। बबुआ को खेलाना क्या, वह तो आंखें बंद किए सो रहा होता था। कभी-कभी आंखें बंद किए ही मुस्कराता तो कभी रोने लगाता। इस बीच बबुआ की अम्मा सउरिहा घर का काम निपटा लेती और कहतीं बबुआ भगवान जी से बातें कर रहा है।
सउरिहा घर से जब निकलते तो सीधे हमरी अम्मा कहतीं, ऐ! कहा चले, पहले नहा, फिर कहीं इधर-उधर धांगो। बबुआ को खेलाने के जुनून में नहाने जैसे दी गई सजा भी मजे मजे भुगत लेते।
सउरिहा घर में जच्चा-बच्चा का इतना ध्यान रखा जाता कि उसके सिरहाने लोहे का कजरौटा (काजल रखने का ढक्कनदार पात्र) और एक कपड़े में बांध के लोहबान और कपूर रख दिया जाता था। इसके पीछे तर्क यह था कि कजरौटा और लोहबान जच्चा-बच्चा को बुरी शक्तियों से बचाता है।
इसी उसरिहवा घर में जच्चा को बच्चे को लेकर सोने के तरीके सीखाए जाते थे। घर की सास या जेठानी बार- बार प्रसूता को ताकिद करती थीं कि बच्चे को हमेशा आगे करके सोना चाहिए। सोते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि बच्चा कहीं दब न जाए।
सउरिहा घर में बच्चे के जन्म लेते ही घर के सभी देवी देवताओं की मुर्तियां मसलन ठाकुर जी को दूसरे के घर माता पूजने तक रखवा दिया जाता जहां दोनों समय पूजा-पाठा, धूप-दीप हो। कहा जाता था कि घर में सूतक लगा है।
पंडित जी बच्चे का राशि का नाम निकालते और नहौना का दिन बताते। इसी मुहुर्त के अनुसार जच्चा-बच्चा को तीन या सात दिन पर नहवाया जाता था। नहौना के दिन घर को गाय के गोबर और मिट्टी से लीपा जाता था और टोले मोहल्ले की औरतें आकर सोहर गातीं, जिन्हे बतासे और जौ या गेहूं उनके फांड़ में बबुआ की दादी कटोरा भर-भर के देती थीं।
सउरिहा घर में रहते हुए ही आती थी छठी के दीया की बारी। इसके बारे में कहा जाता था कि जमराज निगरानी करते हैं।
बबुआ या बुचिया के जन्म के छठवें दिन की रात को छठी का दिन कहा जाता था। इस छठी की रात को बबुआ की अम्मा सरसों तेल का दिया जला कर ऐसी जगह रखती की उससे सउरिहा घर में उजाला तो हो पर उसे बबुआ देख न पाए। छठी का दीया पूरी रात जलता। इस बीच बबुआ की अम्मा इस बात का खास ध्यान रखतीं कि बबुआ छठी का दीया देखने न पाए।
छठी का दीया न देखने देने की पीछे तर्क होता था कि यदि सउरिहा घर में बबुआ या बुचिया छठी का दीया देख ले तो उसकी आंखें भैंगी हो जाएंगी। इसलिए इस बात का खास ध्यान रखा जाता था कि बबुआ छठी का दिया दखने न पाए नहीं तो भैंगा हो जाएगा। आज भी लोग जब गुस्से में होते हैं तो कहते हैं - देखबे फलनवां अइसन मारब की तोर छठी के दूध याद आ जाई।