फिर याद आई गांती

दुर्गेश कुमार मिश्र
सर्दी के मौमस में दिसंबर का महीना सबसे ठंड का महीना माना गया है। वैसे तो सर्दी की शुरुआत लंका दहन से ही हो जाती है, लेकिन कातिक के महीने में आभास हो जाता है की सर्दी आ गई है। दीपावली की रात दीये जलाने के बाद भोरे-भोरे दलिदर खेदने के टाइम गांती बांधे सूप बजाते गांव के बहरे जाने की बात याद आई कि नहीं। यदि याद आ गई है तो यह याद होगा गांती बांधने की शुरूआत रात को रामलीला देखने के समय से ही हो जाती है। कई बार तो बलिया के ददरी मेले में गांती बांध कर कवि सम्मलन में सबसे आगे बैठे सोबराती चाचा को भी देखा है। और न जाने ऐसे कितने सोबराती और नरसिंह चाचा उस कवि सम्मलेन में रहे होंगे जिन्होंने गांती बांधी थी। गांती, भले ही गरीबी और जाहिली की निशानी रही हो, लेकिन मां की गोद के बाद यदि कहीं और सुख मिलता था तो वो है गांती। 

बहती नाक और छींकते हुए देख कर घर का कोई भी बुजुर्ग चाहे वह बाबा हों, चाचा हो, अईया हों या नाना-नानी, मामा-मामी कोई हो पकड़के गांती बांध देता था। क्योंकि यह सलिका उन्हें ही आता था। बहरहाल 21वीं शदी में गांती अनपढ़ों और गवांरों निशानी बन गई । सर्दी के मौसम का यह विशेष गंवई परिधान गांती, आधुनिक युग के फैशन डिजाइनरों को तरहत-तरह के प्रयोग करने को प्रेरित करती है। पुरानी पीढ़ी के लोग मोटे भेंड़ के ऊन से बने देसी कंबलों और मोटी चादरों को लेपट कर पूस और माघ की कड़कती सर्दी से दो-दो हाथ करते थे। अभी ज्यादा नहीं दो दशक पहले तक फाइवर और थर्माकोल के बने कोट, जैकेट और फर्नवाले कंबल कुछ परिवार के लोगों की पहुंच थी। अब आप सोच रहे होंगे कि गांती यह कौन सी बला है, या कोई नया फैशन इजाद हुआ है। दर असल 'गांती' भोजपुरी का शब्द है। गांती छोटे बच्चों को सर्दी से बचाने के लिए बांधा जाता है। 

एक मोटे चादर को सिर से ओढ़ा कर उसका एक सिरा पकड़ते हैं और उसके गले के पीछे दूसरे सिरे से बांध देते हैं। इससे सिर से लेकर पांव तक बच्चा उस मोटी चादर ढंक जाता है। इसी प्रक्रिया को भोजपुरी में गांती कहा जाता है। वैसे यह उत्तर प्रदेश और बिहार ओल्ड फैशन था। गांती की एक खास बात और थी, जाति-धर्म, अमीर-गरीब सभी के लिए कामन थी, हां ! थोड़ा बहुत शहरी लोगों से सकुचाती जरूर थी, पर अकड़ और शरीर पर पकड़ पूरी थी। कभी-कभी यह नाक पोछने और अम्मा की मार से बचाने का काम भी करती थी। ज्यादा नहीं आज से करीब 30 साल पीछे की जिंदगी के पन्ने पलट कर देखें तो गांती ठंठ से बचने का सबसे ठोस, आसान और सस्ता साधन था। यह साधन गांव से छोटे-छोटे कस्बों में भी उपलब्ध था। 

या यूं कहें कि सर्दी से बचने का एक फूलप्रूफ जैकेट की तरह था। इसके लिए किसी भी तरह के कपड़े का इस्तेमाल कर लिया जाता था। चाहे वह बाबू जी की धोती, चाचा का गमछा या बहन का दुप्पटा हो, यानि समय पर जो मिल गया वहीं चलेगा। कभी-कभी तो अम्मा अपनी शॉल ही उतार कर दे देती थीं। बात यहीं तक सिमित नहीं थी। गांती तो छुकन से लेकर जवानी की दहलीज पर पैर रखने वाले भी बांधते थे। गांती बांधे-बांधे दूसरे गांवों में नाच, नौटंकी, बीरहा, कौव्वाली तक सुनने चले जाते थे। गांवों जब नया नया वीसीआर आया था तो लोग शर्द रात में खुले में बैठ कर इसी गांती के सहारे पूरी रात वीसीआर पर सिनेमा देखते थे। 

अगर पता लग जाए कि फलां गांव में वीसीआर पर रामयण दिखाई जा रही है, फिर तो गांती और कसते अम्मा बांधती और बाउ जी के चोरी चुप्पे भेजती थी। साथ में संदेश भी होता था, गांती खुले न और बाऊ जी जागने से पहले आ जईओ। यानी गांती सर्दी से बचने की पूरी गरंटी थी। गांती के साथ यदि बोरसी (सर्दी में आग सेंकने का मिट्टी का बना साधन) के पास बैठी दादी या दादा की गोद मिल जाए तो उसके सामने इंद्र का सिंहासन भी फेल। खैर अब तो बोरसी की जगह हीटर और रूम हीटर ने जगह ले ली है, और गांती की जगह तहर-तहत के गाऊन आ गए हैं। गांती तो अब गरीब और निपट गंवार की निशानी मानी जाती है। 

अब तो मोबाइल देखकर खाना खाने वाले बच्चे गांती के नाम और उसके काम से अनभिज्ञ है। यही नहीं कान में हेड फोन लगा कर गैस पर रोटियां सेंकने वाली अम्मा से मम्मी बनी मताएं भी गांती की ताकत से अंजान हैं। उन्हें यही पता कि इस गांती में सर्दी को क्या भूत भी निकट नहीं आ सकता। हां! गांती में एक बात और है कि इसकी सादगी भरी बनावट और सर्दी से बचाव की पूरी गरंटी ने लेखकों को भी अपनी ओर आकर्षित किया है। तभी तो "गांती " नाम से किताब भी लिखी जा चुकी है। कुछ गंवई-कुछ शहरी चकाचौंध और भागदौड़ में उम्र ने कब अर्धशतक लगा लिया पता ही नहीं चला। जब पता चला तो बहुत कुछ पीछे छूट चुका था। यानि 'मुड़-मुड़ याद सतावे पिंड दी ' इधर, सर्दी दो चार दिनों बढ़ गई है। मन करता है एक बार फिर गांती बांध लें, लेकिन क्या करें, गांती बांधने का सलिका भी हमारी मांओ के साथ चला गया।